सफेद मूसली की खेती करने की वैज्ञानिक तकनीक क्या है?


सफेद मूसली को मानव मात्र के लिये प्रकृति द्वारा प्रदत्त अमूल्य उपकार कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। अनेंको आयुर्वेदिक, एलेापैथिक तथा यूनानी दवाईयों के निर्माण हेतु प्रयुक्त होले वाली इस दिव्य जड़ी-बूटी की दुनिया भर में वार्षिक उपलव्धता लगभग 5000 टन है जबकि इसकी मांग लगभग 35000 टन प्रतिवर्ष आंकी गई है। अब इसकी विधिवत खेती करने की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित हुआ है। सौभाग्यवश इसकी खेती करने की में किए गए प्रयोग न केवल अत्यधिक सफल रहे हैं बल्कि व्यावसायिक रूप से इसकी खेती अविश्वसनीय व  लाभकारी भी पाई गई है।

अलग-अलग जगहों पर मूसली के अलग-अलग नाम

सफेद मूसली एक कंदयुक्त पौधा होता है जिसकी अधिकतम ऊचाई डे़ढ फीट होती है तथा इसकी दिल जड़े़ (जिन्हें कंद अथवा फिंगर्स कहा जाता है) जमीन में अधिकतम 10 इ्रंच तक नीचे जाती है। क्लोरोफाइटम बोरिविलिएनम के नाम से जाना जाता है परंतु इंडियन मलेरिया मेडिका में इसका नाम क्लोरोफाइटम अरूंड़ीयिम दर्शाया गया है। गुजराती भाषा में यह पौधा धेाली मूसली के नाम से, उत्तर पद्रेश में खैरूवा के नाम से, मराठी में सुफेद अथवा सफेद मूसली के नाम से, मलयालम में शेदेवेली के नाम से, तमिल भाषा में तानिरवितांग के नाम से जाना जाता है।

मूसली की कितनी प्रकार की प्रजातियां व किस्में पाई जाती हैं?

यूं तो मूसली की विभिन्न प्रजातियॉ पाई जाती है जैसे कि क्लोरोफाइटम बोरिविलएनम, क्लोरोफाइटम एटेनुएटम, क्लोरोफाइटम ब्रीविस्केपम आदि, परंतु मध्यप्रदेश एव अन्य राज्यों के जंगलो में अधिकांश तौर पर उपलब्धता क्लोरोफाइटन बोरिविलएनम, तथा ट्यूबरोजम की है। इन दोनों में मुख्य अंतर यह कि ट्यूबरोजम में क्राउन के साथ एक धागा जैसा लगा होता है तथा उसके उपरांत इसकी मोटाई बढ़ती है, इसके बारिविलिएनम में कंद के फिंगर की मोटाई ऊपर ज्यादा होती है तथा या पूरी  फिंगर की मोटाई की मोटाई एक जैसी होती है अथवा यह नीचे की ओर घटती जाती है। क्योंकि ट्यूबरोजम के संदर्भ में छिलका उतारना कठिन होता है अतः यह खेती के लिए उपयुक्त नहीं मानी जाती तथा अधिकांशतः क्लोराफाइटम बोरिविलिएनम की ही खेती की जाती है।

मूसली का उपयोग कहां व कैसे होता है?

विभिन्न दवाईयों के निर्माण हेतु सफेद मूसली का उपयोग हमारे देश में बरसों से होता आ रहा है। मूलतः यह एक ऐसी जड़ी-बूटी मानी गई हैं जिसमें किसी भी प्रकार की तथा किसी की कारण से आई शारीरिक शिथिलता को दूर करने की क्षमता पाई गई है। यही कारण है कि कोई भी आयुर्वेदिक टॉनिक (जैसे च्यवनप्राश आदि) इसके बिना संपूर्ण नहीं माना जाता हे यह इतनी पौष्टिक तथा बलवर्धक होती है कि इसे दूसरे शिलाजीत की संज्ञा दी गई है। अर्न्तराष्ट्रीय जगत में इसे हर्बल वियाग्रा के नाम से जाना जाता है तथा चीन व उत्तरी अमेरिका में पाये जाने वाले पौधे रंगसेंग जैसा बलवर्धक माना गया है। विदेशों में इससे कलॉग जैसे फ्लेक्स बनाए जाने पर भी कार्य चल रहा है, जो नाश्ते में प्रयुक्त किए जा सकेंगे। इसके अतिरिक्त इससे माताओं का दूध बढाने, प्रसवोपरान्त होने वाली बीमारियॉ तथा शिथिलता को दूर करने तथा मधुमेह आदि जैसे अनकेां रोगेां के निवारण हेतु भी दवाईयां बनाई जाती है। इसी प्रकार ऐसी अनेको आयुर्वेदिक, एलौपैथिक तथा यूनानी औषधियॉ है जो इस जड़ी-बूटी से बनाई जा सकती है तथा जिसके कारण यह एक उच्च मूल्य जड़ी-बूटी बन गई है तथा भारत के साथ-साथ अंतराष्ट्रीय बजार में भी इसकी प्रचुर मांग है।

आखिर मूसली की खेती करने की आवश्यकता क्यों है?

जैसा कि उपराक्तानुसार वर्णित है, सफेद मूसली विभिन्न औषधियों के निर्माण हेतु प्रयुक्त होने वाली एक अमूल्य जड़ी-बूटी है जिसकी देशीय तथा अंतराष्ट्रीय स्तर पर व्यापक मांग है। परन्तु जिस तेजी से यह मांग बढ़ रही है इसकी तुलना में इसके उत्पादन तथा आपूर्ति में बढो़त्तरी नहीं हो पाई है। एक अनुमान के अनुसार अंतराष्ट्रीय स्तर पर मूसली की कुल उपलब्धता 5000 टन है जबकी इसकी वार्षिक मांग 35000 टन है। इस बढती हुई मांग की आपूर्ति तभी संभव है यदि इसकी विधिवत खेती की जाए।  इस वस्तुस्थिति के फलस्वरूप हमारे देश के विभिन्न भागों में मूसली की विधिवत खेती प्रारंभ हुई  जिसके परिणाम दर्शाते हैं कि यदि वैज्ञानिक तरीके से मूसली की खेती की जाए तो यह न केवल परंपरागत खेती की तुलना में बल्कि यह (लगभग) किसी भी प्रकार की खेती की तुलना में कई गुना ज्यादा लाभकारी है तथा इसकी खेती से औसतन एक एकड से 6 से 7 लाख रूपये तक शुद्व लाभ कमाया जा सकता है। इसकी खेती के लिए मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, हरियाणा तथा दिल्ली आदि प्रदेशों की जलवायु काफी अनुकुल है।

मूसली की खेती कैसे, कहां और कब कर सकते हैं?

जैसा कि उपरोक्तानुसार वर्णित है, मूसली मूलतः एक कंदरूपी पौधा है, जिसकी विधिवत खेती काफी सफल रही है इसकी खेती से संबंधित कृषि तकनीक निम्नानुसार है-

क्या मूसली की खेती के लिये उपयुक्त भूमि की आवश्यकता होती है?

क्योंकि मूसली मूलतः एक कन्द है जिसकी बढ़ोत्तरी जमीन के अंदर होती है अतः इसकी खेती के लिये प्रयुक्त की जाने वाली जमीन नर्म होना चाहिए। वैसे तो अच्छी जल निकासी वाली रेतीली दोमट मिट्टी जिसमें जीवाश्म की पर्याप्त मात्र उपस्थित हो, इसकी खेती के लिये सर्वश्रेष्ट मानी जाती है। भूमि ज्यादा नर्म (पोली) भी नही चाहिए अन्यथा कन्द की फिगर्स पतली रह जायेगी जिससे इसका उत्पादन प्रभावित होता है।

क्या मूसली की फसल के लिये अधिक पानी की आवश्यकता होती है?

मूसली की अच्छी फसल के लिये पानी की काफी आवश्यकता होती है। यूं तो मई-जून माह में लगाए जाने के कारण जून-जुलाई-अगस्त के महीनों में प्राकृतिक बरसात होने के कारण इन महीनेां में कृत्रित रूप से सिंचाई करने की आवश्यकता नहीं होती, फिर भी यह ध्यान दिया जाना आवश्यक है कि जब तक फसल उखाड़ न ली जाए तब एक भूमि गीली रहनी चाहिए। अतः बरसात के उपरांन्त लगभग प्रत्येक दस दिन के अंतराल पर खेत में पानी देना उपयुक्त होगा। पौधों के पत्ते सूखकर झड़ जाने के उपरांत भी जब तक कंद खेत में हो, हल्की-हल्की सिंचाई प्रत्येक दस दिन में करते रहना चाहिए जिससे भूमिगत कनदों की विधिवत् बढोत्तरी होती रहे। सिंचाई के लिये यदि खेत में स्प्रिंकलर्स लगे हो तो यह सर्वाधिक उपयुक्त होगा परन्तु ऐसा अनिवार्य नहीं है। सिंचाई का माध्यम तो कोई भी प्रयुक्त किया जा सकता है परन्तु सिंचाई नियमित रूप से होते रहना चाहिए। हालांकि सिंचाई किया जाना आवश्यक है परन्तु खेत में पानी रूकना नहीं चाहिए अन्यथा इससे फसल का उत्पादन प्रभावित होगा। सिंचाई के लिये कुऑ, ट्यूबवेल, नहर आदि जो भी संभव हो, माध्यम का उपयोग किया जा सकता है।

मूसली की खेती के लिये किन-किन खादों का उपयोग किया जा सकता है?

मूसली की खेती के लिए पांच प्रकार की खाद/तत्व प्रयुक्त किये जा सकते है- गोबर खाद, रासायनिक खाद, हरी खाद (ग्रीन मेन्यूर), हड्डी खाद्, सॉइल कंडीनर आदि। मूसली की खेती हेतु इनकी आवश्यकता निम्नानुसार होंगी-

(क)  गोबर अथवा कम्पोस्ट खाद

गोबर की खाद अथवा कम्पोस्ट खाद मूसली की फसल के लिये अत्यधिक उपयोगी रही है। यद्यपि यह संबंधित कृषक की क्षमता खाद की उपलब्धता आदि पर निर्भर करेगा। (उदाहरण के लिए फार्मो पर प्रति एकड़ 65 ट्राली गोबर की खाद डाले जाने संबधी प्रयोग किए गए है) परन्तु फिर भी अच्छी फसल के लिए प्रति एकड़ 15 से 16 ट्राली अच्छी पकी हई गोबर की खेत को तैयार करते समय बिजाई से पूर्व डाली जानी चाहिए तथा खेत में अच्छी तरह मिला दी जानी चाहिए।

(ख) रासायनिक खाद

वैसे तो रासायनिक खाद का उपयोग लाभकारी रहा। परन्तु यथासंभव इसका उपयोग न किया जाय तो उपयुक्त रहेगा। विदेशी खरीदारों के दृष्टिकोण से जहॉ तक संभव हो इसका उपयोग नही किया जाना चाहिए।

(ग) हरी खाद अथवा ग्रीन मैन्यूर

जनवरी-फरवरी में मूसली के कंदो की खुदाई के उपरांत अगली फसल (मई-जून) तक खेत खाली रहता है। ऐसे समय मे खेत में अल्पावधि वाली कोई फसल जैसे सन, बरू अथवा धतूरा उगा लिया जाना चाहिए तथा मई-जून में खेत की तैयारी करते समय इस फसल में हल चलाकर इसे खेत में ही मिला दिया जाना चहिए। इस प्रकार हरी खाद डालने के काफी अच्छे परिणाम देखे गये है।

(घ) हड्डी खाद

आमतौर पर कंदययुक्त फसलों के लिये हड्डी खाद काफी लाभकारी सिद्व हुई है। हालांकि इसकी डाली जाने वाली प्रति एकड़ मात्र किसान की क्षमता पर निर्भर करेगी परन्तु क्योंकि इसमें माइक्रोन्यूट्रिएन्अस रहते है। अतः न्यूनाधिक मात्र में इसका डाला जाना फसल के लिये उपयोगी पाया गया है।

(ड़) सॉयल कंडीशनर

परीक्षणों में देखा गया है कि जिस खेत में मूसली लेना हो, वहॉ यदि सॉयल कंडीशनर का उपयोग किया जाए तो एक तो उससे भूमि नर्म हो जाती है दूसरे इससे उपज में वृद्वि होती देखी गई है।

खेत की तैयारी कैसे की जाता है?

मूसली की फसल के लिये खेत की तैयार करने के लिये सर्वप्रथम खेत मे गहरा हल चला दिया जाता है। यदि खेत में ग्रीन मैन्यूर के लिये पहले से कोई अल्पावधि वाली फसल उगाई गई हो तो उसे काट कर खेत में डाल कर मिला दिया जाता है। उसके बाद इस खेत में गोबर की पकी हुई खाद 15 से 16 ट्राली प्रति एकड़ बुरक कर इसे खेत मे मिला दिया जाता है। इसके उपरांन्त एक बार पुनः गहरी जुताई कर दी जाती है।

बैड्स कैसे बनाया जाता है?

मूसली की अच्छी फसल के लिये खेत में बैड्स बनाये जाना आवयक होता है। इस संदर्भ में 3 से 3.5 फीट चौड़े समान्य खेत से कम कम 6 इंच से 1.5 फीट ऊंचे रेझ बैड्स बना दिए जाते है। इसके साथ-साथ पानी के उचित निकास हेतु नालियों की पर्याप्त व्यवस्था की जाती है तथा बैड्स के किनारों पर आने-जाने के लिये पर्याप्त जगह छेाड़ा जाना आवश्यक होता है। यदि ज्यादा चौडे़ बैड्स न बनाने हो तो आलू की तरह के सिंगल बैड्स भी बनाये जा सकते है। हालांकि इसमें काफी ज्यादा जगह घिरेगी परन्तु मूसली उखाड़ते समय यह ज्यादा सुविधाजनक रहेगा।

मूसली की विजाई हेतु प्रयुक्त होने वाला बीज अथवा प्लांटिग मेटेरियल क्या-क्या है?

मूसली की विजाई इसके घनकंदो अथवा ट्युवर्स अथवा फिगंर से की जाती है। इसी संदर्भ में पूर्व की फसल से निकाले गये कंदों/फिगर्स का उपयोग भी किया जा सकता है। बीज के लिये ट्युवर्स अथवा फिंगर्स का उपयोग करते हुये यह बात अवश्य ध्यान में रखनी चाहिए कि फिंगर्स के साथ पौधे के उगने में परेशानी आ सकती है। इसके साथ-साथ प्रयुक्त किये जाने वाले ट्युवर अथवा फिगंर्स का छिलका क्षतिग्रस्त नहीं होना चाहिए। इस प्रकार मान लेा एक पौधे में 20 फिंगर्स है तो इससे 20 बीज बन सकते हैं। परन्तु डिक्स अथवा क्रा अथवा क्राऊन का कुछ भाग सभी के साथ लगा होना चाहिए। यदि कंद छोटे हो तो पूरे के पूरे पौधे का उपयोग भी बिजाई हेतु किया जा सकता है। ऐसा भी किया जा सकता है कि, जव फसल उखाड़ी जाये तो पौधे के जो नीचे लम्बे अथवा पूर्ण विकसित फिंगर्स अथवा ट्यूबर्स हों उन्हे तो अलग करके तथा छील करके बिक्री के लिये भिजवा दिया जाये तथा जो फिंगर्स छोटे रह गये हों उन्हें बीज के रूप में प्रयुक्त कर लिया जाए। प्रायः एक ट्यूबर (बीज) का वजन 0.5 ग्राम से 20 ग्राम तक हो सकता है परन्तु अच्छी फसल की प्राप्ति हेतु ध्यान रखना चाहिए कि प्रायः ट्यूबर 5 ग्राम से 10 ग्राम तक के वनज का हो।

(अ) प्लाटिंग मैटेरियल की मात्रा क्या होना चाहिए?

मूसली की बिजाई हेतु 5 से 10 ग्राम वनज की क्राउनयुक्त फ्रिंगर्स सर्वाधिक उपयुक्त रहेंगी जिनका 6 फीट 6 इंच’ की दूरी पर रोपण किया जाता है। एक एकड़ के क्षेत्र में अधिकतम 80,000 बीज (क्राउनयुक्त फ्रिंगर्स) लगेंगे जिसमें से कुछ बीज 2 ग्राम के भी हो सकते है, कुछ 3 गा्रम के, कुछ 3.5 के अथवा 10 ग्राम के। इस प्रकार एकड़ के क्षेत्र हेतु लगभग 6 क्विंटल मेंटेरियल की आवश्यकता होगी।

(ब) बिजाई से पूर्व प्लांटिग मेटेरियल का ट्रीटमेन्ट कैसे करना चाहिए?

लगाये जाने वाले पौधे रोगमुक्त रहें तथा इनके नीचे किसी प्रकार की बीमारी आदि न लगे इसके लिये मैटेरियल को लगाने से पूर्व 2 मिनट तक बायोफंजीसाइड के घेाल में अथवा एक घंटा गौमूत्र में डुबोकर रखा जाना चाहिए जिससे ये रोगमुक्त हो जाते है।

मूसली की बिजाई करने की विधि क्या-क्या है?

खेत की तैयारी करने के उपरांत 3 से 3.5 फीट चौडे़, जमीन से 1-1 फीट ऊंचे बैड बना लिये जाते है। इन बैड्स में लकडी़ की सहयता से (जेा कि इस कार्य हेतु विशेष रूप से बनाई जा सकती है) कतार से कतार तथा पैाधे से पौधा 6 फीट 6 इंच की दूरी रखते हुए छेद कर लिये जाते है। छेद करने से पूर्व यह देखना आवश्यक है कि हाल ही में बारिश हुई हो अथवा उसमें पानी दिया गया हो (जमीन गीली होनी चाहिए) इस प्रकार एक बेड़ में कतारें बन जाती है। फिर इस फिंगर्स अथवा सम्पूर्ण पौधे का रोपण कर दिया जाता है। यदि फिंगर बहुत छोटी हो तो 2-2 फिंगर्स को मिलाकर भी रोपण किया जा सकता है परन्तु सभी फिंगर में क्राउन का कुछ भाग संलग्न रहना चाहिए। यदि बीज बड़ा हो तो (5 ग्राम से अधिक हो) तो 6 फीट 6 इंच वाली दूरी को बढाया भी जा सकता है। रोपण करते समय फिंगर जमीन में 1 इंच से ज्यादा गहरी न जाये। फिंगर जमीन में सीधी लगाई जानी चाहिए अर्थात क्राउन वाला भाग ऊपर तथा फिंगर का अंतिम सिरा नीचे। रोपण के उपरांत इस पर हाथ से ही मिट्टी डाल देना चाहिए अथवा छेद ऊपर से बंद कर दिया जाना चाहिए। इस प्रक्रिया में प्रायः एक व्यक्ति लकडी से आगे-आगे छेद बनाता चलता है तथा दूसरा फिंगर्स को रोपण किया जाता है।

बिजाई के बाद पौधों का उगना तथा बढना कब होता है?

बिजाई के कुछ दिनों के उपरांत ही पौधा उगने लगता है तथा इसमें पत्ते आने लगते है। इसी बीच फूल तथा बीज आते है तथा अक्टुबर-नवम्बर में पत्ते अपने आप सूखकर गिर जाते है और पौधे के कन्द जमीन के नीचे रह जाते है।

मूसली की फसल से होने वाले उत्पादन की मात्रा क्या होती है?

मूसली की फसल में होने वाले उत्पादन की मात्र अनेकों कारकों पर आधारित होती है, जिनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण है इसका बीज ऐसा पाया गया है कि, छोटे बीजों से प्रायः 5 ग्राम से कम वजन वाले बीजों से  प्रायः 4-6 गुना बड़ा कन्द तैयार होता है, अर्थात इसमें लगने वाली सभी फिंगर्स को मिलाकर कंद का वजन प्रयुक्त किय गए बीज की तुलना में 4-5 गुना बड़ा होगा। जो कि इससे ज्यादा वनज वाले कन्दों से प्रायः 3 गुना बड़ा कन्द तैयार होता है। वैसे यूं तो 2 ग्राम से लेकर 270 ग्राम के कन्द देखे गये है परंन्तु एक अच्छी फसल से औसतन 20-25 ग्राम वनज वाले कन्द प्राप्त होते है। इसी प्रकार ये एक पौधे में लगने वाले फिंगर्स की संख्या भी 2 से लेकर 65 तक देखी गई है परंन्तु औसतन एक पौधे में 10 से 12 फिंगर्स होना पाया गया है। इस प्रकार ऐसा मान जा सकता है कि, डाले गये बीज की तुलना में मूसली का 8 से 10 गुना ज्यादा उत्पादन होगा।

मूसली की फसल में होने वाली प्रमुख बीमारियां तथा प्राकतिक आपदाएं क्या हैं?

मूसली की फसल में प्रायः कोई विशेष कीटनाशकों का उपयोग करने की आवश्यकता नहीं होती। क्योंकि पौधे का कन्द भूमि में रहता है अतः इस फसल पर किन्हीं प्राकृतिक आपदाओं जैसे ओलावृष्टि आदि का प्रभाव भी नहीं हो पाता। हां, यदि पानी के उचित निकास की व्यवस्था न हो तथा पैाधे की जड़ो के पास पानी ज्यादा दिन तक खडा रहता है तो पैदावार पर प्रभाव पड सकता है तथा कन्द पतले हो सकते हैं। वैसे यह पौधा किसी प्रकार की बीमारी अथवा प्राकृतिक आपदाओं के प्रभाव से लगभग मुक्त है।

बड़ी मूसली की फिंगर्स अथवा ट्युबर्स पतली हो जाए तो क्या करें?

मूसली की फसल का प्रमुख उत्पाद फिंगर्स ही है जिन्हे छीलकर तथा सुखाकर सुखी मूसली तैयार की जाती है, अतः ये फिगर्स मोटी तथा अधिक से अधिक से अधिक गूदायुक्त फिंगर्स प्राप्त हो सकें (फिंगर्स के पतले होने पर ज्यादा गूदा प्राप्त नहीं होगा)। प्रायः भूमि के ज्यादा नर्म हाने पर फिंगर्स जमीन में ज्यादा गहरी चली जाती है तथा खाली रह जाती है। अतः एक तो खेत की तैयारी करते समय इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि भूमि ज्यादा नर्मा (गर्म) न हो, दूसरे यदि खुदाई के उपरांत पौधे एक ऐसी फिंगर्स निकलती है तो उन्हें उत्पादन के रूप में प्रयुक्त करने के बजाय प्लांटिग के रूप में प्रयुक्त कर लिया जाना चाहिए।

जमीन से पौधों अथवा कन्दों को उखाडना का तरीका क्या है?

पत्तों में सूखकर गिर जाने उपरांत भी एक-दो महीने तक के लिये कन्दों को जमीन में ही रहने दिया जाना चाहिए तथा पत्तों को सूख जाने के उपरांत भी खेत में हल्का हल्का पानी का छिडकाव करते रहना चाहिए। प्रसंग में (कच्चे) कन्दों का रंग सफेदी लिये हुए होता है जो कि धीरे-धीरे भूरा होने लगता है। जमीन में जव कन्द पूर्णतया पक जाते हैं (अथवा उंजनतम हो जाते हैं) तो इनका रंग गहरा भूरा हो जाता है अतः जब कनदो को रंग भूरा-भूरा हो जाए ता कुदाली की सकायता से एक एक करके कन्दों को निकाला जा सकता है। प्रायः कंद निकालने वाले कार्य से ही (ट्रेक्टर आदि से नहीं) करना चाहिए।

कंदो की धुलाई कैसे करनी चाहिए?

जमीन से कंद उखाडने पर उनके साथ मिटटी आदि लगी रहती है अतः छीलने से पूर्व धोया जाना आवयक होता है। इस संदर्भ में उखाडे हुये कंदो का टेाकरियों को पानी के बहाब के नीचे रखकर कंदो की धुलाई की जा सकती है। इसके उपरांत धुले हुये कंदो की छिलाई की प्रक्रिया प्रारंभ होती है।

मूसली की छिलाई कैसे करनी चाहिए?

चाकू से मूसली की छिलाई करना ज्यादा सुविधा जनक होता हे इसमें वेस्टेज भी कम होता है तथा इससे उत्पाद भी अच्छी गुणवत्ता का तैयार होता है। यह विधि काफी आसान भी है तथा कोई भी अकुशल मजदूर भी ऐसी छिलाई का कार्य कर सकता है। यहां कि बच्चे भी यह कार्य कर सकते हैं इस प्रकार एक दिन में एक व्यक्ति लगभग 1 किलोगा्रम से 5 किलोग्राम तक मूसली छील लेता है।

छिली हुई मूसली को कैसे सुखाना चाहिए?

छीलने के उपरांत छिली हुई मूसली को सुखाया जाता है ताकि उसमें उपस्थित नमी पूर्णतया सूख जाए। ऐसा प्रायः छिली हुई मूसली को धूप में डालकर किया जाता है। प्रायः दो-तीन दिन तक धूप में रखने से मूसली में उपस्थित नमी पूर्णतया सूख जाती है।

मूसली की पैकिंग कैसे करनी चाहिए?

सूखी हुई मूसली को विपणन हेतु प्रस्तुत करने से पूर्व उसकी विधिवत पैकिंग की जाती है। यह पैंकिंग प्रायः पौलीथीन की थैलियों में की जाती है। ताकि यह सुरक्षित रह सके तथा इस प्रकार किसी प्रकार से नमी आदि का प्रभाव न पड़े।

जमीन से उखाड़ने से लेकर सुखाने तक में मूसली के वजन में क्या अंतर आता है?

जमीन से उखाड़ने के उपरांत मूसली की छिलाई करने तथा उसे सुखाने की प्रक्रिया में वजन में अंतर होना स्वाभाविक है परन्तु सूखने के उपरान्त बचने की मात्र मूसली की मोटाई (मांसलता) पर ज्यादा निर्भर करती है क्योंकि कुछ फिंगर्स ज्यादा मोटी होती हैं जबकि अन्य पतली होती है। यदि फिंगर्स ज्यादा मोटी होगी तो छिलाई के उपरांत अंततः सूखने पर इनका वजन उन फिंगर्स की अपेक्षा अधिक रहेगा जो पतली फिंगर्स की छीलने तथा सुखाने के उपरांत प्राप्त होगी। वैसे इस छीलन तथा सुखाने की प्रक्रिया में ताजी मूसली (खेत से उखाड़ी हुई मूसल) का लगभग 20 से 25 प्रतिशत तक सूखी मूसली के रूप में प्राप्त होता है।

आगामी फसल हेतु मूसली के बीज का संग्रहण कैसे करना चाहिए?

मूसली के कन्दो की खुदाई के उपरांत कन्दों के साथ लगी हुई बडी फिंगर्स को तोडकरख छीलकर तथा सुखाकर बिक्रित किया जा सकता है जबकि शेष बची हुई क्राउन सहित फिंगर्स, जो प्रायः साइज में छोटी होती है, का उपयोग बीज (प्लांटिग मेटेरियल) के रूप में किया जा सकता है। क्योंकि ये कंद मार्च-अप्रैल माह में निकालते जाते हैं तथा इन्हें मई जून तक सुरक्षित रखा जाना आवश्यक होता है। (क्योंकि इनकी बिजाई मई-जून में ही होगी) अतः तब तक के लिये इनका भण्डारण सावधानीपूर्वक करना आवश्यक होता है। इन कंदो को कोल्ड स्टोरेज में रखना भी ज्यादा उपयुक्त नहीं पाया गया है क्योंकि इससे पौधों का उगाव प्रभावित होता है। यदि बीजों के संग्रहण के लिये एक विशेष चैम्बर बनाया जा सके जिसमें 70 से 80 अंश तक आद्रता मेन्टेन की जा सके तो यह सर्वश्रेष्ठ होगा। इन कंदो को एक छाया वाले स्थान में एक गढ़ढे में रखकर ऊपर से मिट्टी डालकर सुरक्षित रखे जा सकते हैं।

इन्टर-क्रोपिंग के रूप में सफेद मूसली की खेती की जा सकती है या नहीं?

सफेद मसूली को अगर अन्य पौधों जैसे जेटरोफा (बायोडीजल़), टीक, खैर, सताबर तथा पपीता के बीच में उगाया जा सकता है जिसमे प्रति एकड़ सफेद मूसली की फसल के साथ प्रति वर्ष लगभग 1 से 2 लाख रूपये अतिरिक्त कमाये जा सकते हैं तथा सफेद मूसली की फसल भी निरोगी तथा अधिक उत्पादन वाली होगी।

मूसली का उत्पादन तथा इसकी खेती से अनुमानित लाभ कितना हो सकता है?

प्रायः एक एकड़ के क्षेत्र में मूसली के लगभग 80,000 पौधे जाते हैं यदि उनमें से 70,000 पौधे भी अंत में बचते हैं जिनमें एक पौधा का औसतन वजन 70 ग्राम होता है तो किसान को लगभग 4900 किलोग्राम मूसली प्राप्त होती है कि छीलने तथा सुखाने के उपरान्त 10 क्विटन्टल रह जाएगी। इसके अतिरिक्त इसमें लगभग आधा एकड़ की बिजाई हेतु प्लांटिंग मेटेरियल भी बच जाएगा। इसके अतिरिक्त इसमें लगभग आधा एकड़ की बिजाई हेतु प्लाटिंग मेंटेरियल भी बच जाएगा। वैसे जो लेाग मूसली की वास्तिविक रूप से खेती कर रहे हैं वे प्रति एकड़ औसतन 10 से 12 क्विंटल सूखी मूसली की पैदावार होना बताते हैं जबकि किन्ही अन्य विशेषज्ञों का विचार है कि यदि मूसल की फसल सही रूप से ली जाए तो इससे प्रति एकड़ 16 क्विंटल तक सूखी मूसली प्राप्त हो सकती है यदि वर्तमान बाजार मूल्य (जो कि 1000 रूपये से लेकर 1700 रूपये प्रति किलोग्राम तक है तथा अर्न्तराष्ट्रीय बजार में इसकी कीमत 3000 रूपये से लेकर 4000 रूपये प्रति किलो है) के अनुसार देखा जाए तो इस 12 क्विंटल सूखी मूसली के औसतन 12 लाख रूपये की प्राप्ति होगी। कुछ मिडियम की तथा कुछ तीसरे दर्जे की (जिनका भाव 1000 रू से लेकर 1700 रूपये प्रति कि.ग्रा. तक मिल सकता है) तथा 3,00,000 रूपये से तक के मूल्य का प्लांटिंग मेटेरियल प्राप्त होगा। यदि इसकी खेती पर होने वाले समस्त खर्चे की गणना करने के उपरांत देखा जाए तो इस 6 से 8 माह की फसल से प्रति एकड़ 10-11 लाख रूपये तक का लाभ प्राप्त किया जा सकता है जो कि किसी भी अन्य औषधीय फसल की खेती की तुलना में कही अधिक है।

सफेद मूसली का बाजार कहां-कहां है?

भारत वर्ष में सफेद मूसली की बिक्री में किसानों को किसी तरह की परेशानी नहीं आती देश के प्रमुख शहरों जैसे दिल्ली, देहारादून, कोलकाता, मुम्बई तथा भोपाल आदि में मुख्य बाजार हैं इसके अलावा अर्न्तराष्ट्रीय स्तर पर निर्यातक एवं आयातक सफेद मूसली की खरीदारी करते हैं अधिकतर उच्च कोटी की ऑरगेनिक एवं जहर रहित सफेद मूसली की फसल को किसानों के खेतों से ही खरीद लिया जाता है।

मूसली की खेती से होने वाले प्रमुख लाभ क्या-क्या हैं? 

  1. अत्यधिक लाभकारी फसल- मात्र 7से 8 माह में प्रति एकड़ 10 से 11 लाख रूपये का शुद्व लाभ वाली एकमात्र फसल। अगर वैज्ञानिक तरीके से की जाए तो 14 लाख रूपये तक लाभ संभव है।
  2. इसकी किसी भी प्रकार कर प्रोसैसिंग करने की आवश्यकता नहीं- कोई मशीन लगाने की जरूरत नहीं। सीधे उखाड कर छीन कर तथा सुखा कर बेच सकते हैं।
  3. बाजार की समस्या नहीं - व्यापक बाजार उपलब्ध
  4. अकुशल श्रमिकों से कार्य चल सकता है।
  5. मौसम के परिवर्तन का फसल पर ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ता।
  6. सफेद मूसली की फसल निरोगी रहती है इसलिए इसमें कोई फैक्टर नहीं है।

मूसली की खेती में आने वाली प्रमुख कठिनाइयां क्या-क्या हैं?

  1. मूसली की बीज काफी महंगा होने के कारण प्रारंभिक खर्चा ज्यादा है।
  2. श्रमसाध्य है इसकी खेती के लिये काफी अधिक श्रमिकों की आवश्यकता होती है।

उच्च कोटी की सफेद मूसली में किन-किन बातों का ध्यान रखा जाता है?

  1. जो छीलने तथा सुखाने पर पूर्णतया सफेद रहे।
  2. जिसके सूखने पर अपेक्षाकृत ज्यादा उत्पादन मिले।
  3. जिसमें किसी प्रकार के काले/भूरे धब्बे न हों। #


टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मीडिया स्वामित्व में बदलाव की आवश्यकता

मूर्तिकला कौशल और उसका इतिहास

आध्यात्मिकता की राह में पत्रकारों की कठिनाइयां