स्मिता पाटिल : बांकी हैं कुछ सपनीली यादें
न सामान्य नायिकाओं वाले नाज नखरे, न कोई अतिरिक्त साजसंवार, न कोई तामझाम. एक साधारण सा सामान्य चेहरा, भावप्रवण, सहज सशक्त अभिनय, हर चरित्र को ऐसे जान डाल कर जीना कि वह परदे पर जीवंत हो उठे, स्मिता की खासियत थी और इसके लिये वे समझदार सिने प्रेमियों के बीच सदियों याद की जाएंगी।
गांवों
में रहने वाली अल्लड़ और अनपढ़ नारी
स्मिता
का फिल्मी जीवन और व्यक्तिगत जीवन में अत्यंत विरोधाभास रहा है। विभिन्न भूमिकाओं
में उसने सदियों से होते नारी शोषण, उत्पीड़न,
कड़वाहट, मानसिक आघात और छटपटाहट को दिखाया
है। उसने नारी को विषम परिस्थितियों से लड़ते हुए स्वतंत्र, स्वालम्बी
और मुक्ति की राह पर चलने की प्रेरणा दी है।यह याद कर पाना बहुत मुश्किल है कि
स्मिता को गुजरे आज कई वर्ष हो गये हैं। कल की सी ही बात लगती है, जबकि स्मिता हमारे बीच से उठकर चली गयीं। उसी तरह जैसे कि एक प्रताड़ित
नारी पुरुष प्रधान समाज में घर से निकल कर
पर चली जाती है। स्मिता पाटिल की सबसे असाधारण बात उनकी साधारणता थी। वह
इतनी बड़ी सिने तारिका होकर भी सामान्य भारतीय नारी की तरह लगती थीं। गांवों में
रहने वाली अल्लड़ और अनपढ़ नारी। किसी जमाने में घिसी जीन्स और कोल्हापुरी चप्पल
फटकाने वाली बम्बई टी.वी. की एक एनाउन्सर ग्रामीण जीवन का इतना सजीव चित्रण करती
थी कि लगता था किउसने कभी शहर देखा ही न हो।
कभी
किसी बात की परवाह नहीं रही
भारतीय
नारी के जीवन को उसके विवध रुपों में स्मिता ने परदे पर उतारा था। शायद स्त्री
मुक्ति आंदोलनों के लिए इस सजीव चित्रण द्वारा स्मिता ने जो काम किया, वह अद्वितीय है। स्मिता ने अपने अभिनय से सिद्ध कर दिया कि अभिनय के लिए
सजा-संवरा चेहरा नहीं अपितु त्याग, तपस्या और काम के प्रति
समर्पण चाहिए। परदे पर अभिनय करना ही उसके लिए पर्याप्त न था, वह हर चरित्र में प्राण भरने के लिए तत्पर रहती थी। स्मिता को कभी इस बात
की परवाह नहीं रही कि उसे अपंग लड़की की छोटी सी भूमिका मिली है या अर्थ का
निगेटिव रोल या चक्र में झोपड़ पट्टी के बीच नल के नीचे अर्धनग्न अवस्था में नहाती
नायिका की भूमिका। यद्दयपि उसने अनेक बार यह महसूस भी किया कि उसे फोकस में नहीं
रखा जा रहा है या उसे छला जा रहा है पर बिना कुछ कहे इस पीड़ा को वह भूमिकाओं में
उड़ेलती रहीं।
सशक्त
अभिनय से जीवंत कर दिया
स्मिता
का फिल्मी जीवन और व्यक्तिगत जीवन में अत्यंत विरोधाभास रहा है। विभिन्न भूमिकाओं
में उसने सदियों से होते नारी शोषण, उत्पीड़न,
कड़वाहट, मानसिक आघात और छटपटाहट को दिखाया
है। उसने नारी को विषम परिस्थितियों से लड़ते हुए स्वतंत्र, स्वालम्बी
और मुक्ति की राह पर चलने की प्रेरणा दी है। श्याम बेनेगल ने 1979 में स्मिता को चरणदास चोर एक बाल फिल्म और निशांत के लिए लिया। “निशांत” में यद्दयपि उसकी भूमिका बहुत छोटी थी पर
अपने सशक्त अभिनय से उसने उसे भी जीवंत कर दिया। उसके पास फिल्मों के ढ़ेर लग गए। अगर
यह रखैल, वेश्या, पति पीड़ित विद्रोही
नारी आदि के चरित्र जीवंत कर पाई तो इसलिए कि उसमें गजब की कल्पनाशीलता थी। उन्होंने
लगभग 30 कलात्मक फिल्मों में काम किया। “भूमिका” और “चक्र” में उसे राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। सत्यजीत रे की फिल्म “सदगति” में उन्होंने अपने चयन की सार्थकता को सिद्ध
कर दिया।
भारतीय
नारी को एक नई इमेज पहचान
स्मिता
पाटिल ने भारत की अनेक प्रान्तीय फिल्मों में भी काम किया जिनमें गुजराती की “भवनी भवाई” मलयालम की “चितम्बरा”
तथा बांग्ला की “अश्व में धेर घोड़ा” तथा “आकलेर अंधा के” तेलूगू की “अनपग्रहण” तथा मराठी की जैत रे जेत, सर्वसांश्री, उबरठा आदि उनकी चर्चित फिल्में रहीं। स्मिता
की स्मृति उभरते हुई नारी के विविध विधाओं में आंखों के सामने गुजर जाते हैं। स्मिता
ने मात्र एक दशक के अभिनय जीवन में 50 से अधिक व्यावसायिक
एवं कलात्मक फिल्मों में सशक्त एवं संवेदनशील अभिनय करके भारतीय नारी को एक नई
इमेज पहचान प्रदान की। उन्होंने अपने सभी किरदारों को अत्यंत गहराई और तन्मयता से
जिया है। आज जब स्मिता हमारे बीच में नहीं है तो केवल उनकी यादें ही शेष हैं। 31 वर्ष की अल्प आयु में उनका निधन हो गया। सत्तरवें दशक के मध्य में जिन
कला प्रेमियों के सामने वह छोटी सी सकुचायी हुई रुपहले परदे पर अवतरित हुई और फिर 10
वर्ष के समय में सफलता की सीढ़ियां चढ़ती हुई चली गई और पीछे मुढ़कर
नहीं देखा। उन कला प्रेमियों के लिए स्मिता पाटिल की स्मृति एक स्वप्न की तरह से
है जो सुखद भी है और दुखद भी।
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