कैसे बनाएं अपने बच्चों की जिंदगी बेहतर?


आखिर कौन मां-बाप नहीं चाहते कि उनका बच्चा बड़ा होकर सुयोग्य बने तथा सुखी और सम्पन्न जीवन बसर करे। किन्तु कितने मां-बाप यह समझते है कि बच्चे की सफलता उनको बचपन में मिली शिक्षा-दीक्षा पर ही निर्भर करती है। कितने मां-बाप यह जानते है कि बच्चों को सुख समृद्धि में घर का अच्छा वातावरण कितना सहयोग देता हैं।

बालक वहीं सीखता है जो आप करते हैं

प्रसिद्ध बाल मनोवैज्ञानिक आर्थर डिंगले के अनुसार बालक वहीं सीखता है जो आप करते हैं, वह नहीं जो आप कहते हैं। बच्चे सदा माता पिता की तरह व्यवहार करने की चेष्टा करते हैं। उन्हीं के अनुसार बोलते हैं, खाते-पीते हैं तथा वस्त्र धारण करते हैं। बालक के अबोध मस्तिष्क का आदर्श उसके अपने माता पिता तथा परिवार के सदस्य ही होते हैं। अतः मां-बाप को चाहिए कि वह बच्चों के सम्मुख ऐसे काम न करे जिनको ठीक न समझते हो। समय पर काम करना, सवेरे उठना, साफ रहना, मीठी बोली बोलना, दूसरे की मदद करना, यह सब आदतें मां-बाप द्वारा करने पर अनुकरण प्रकृति के सहारे आसानी से बच्चों में यह डलवाई जा सकती है। स्वयं सिगरेट पीने वाला पिता यदि चाहे कि बच्चा सिगरेट से दूर रहे तो यह कैसे संभव होगा। यही झूठ बोलने वाले मां-बाप की बात है। बालक को कुछ भी कहने से पहले आत्म निरीक्षण अत्यंत आवश्यक होता है। बालक अविकसित मस्तिष्क में भले बुरे का ज्ञान नहीं होता है। अच्छी या बुरी आदतें बच्चा स्कूल जाने से पूर्व ही घर की पाठशाला में सीख चुका होता है।

छात्रावास में भेजकर अपने कर्त्तव्य से मुक्त हो जाते हैं

कुछ लोग बचपन में बच्चे को अच्छा बनाने में जब असफल रहते हैं तो उनकी शैतानी से अपना पीछा छुड़ाने के लिए उन्हें घर से दूर छात्रावास में भेजकर अपने कर्त्तव्य से मुक्त हो जाते हैं। मेरे विचार से यह ठीक नहीं है। जो सुधार मां-बाप अपने प्यार से बच्चे में ला सकते हैं वह छात्रावास का कठोर अनुशासन कैसे सीखा पाएगा। हो सकता है छात्रावास में बच्चा दंड के भय से शान्त रहने लगे व ऊपर से वह अपने को सभ्य बना ले लेकिन यह आवश्यक नही कि वह अपनी गल्ती समझ कर हमेशा के लिए सुधार कर जाए। अतः आवश्यकता पड़ने पर बच्चे को छात्रावास में जरूर पढ़ाना चाहिए किन्तु इस प्रकार पीछा छुड़ाने के लिए नहीं।

जरूरी नहीं है कि डॉक्टर का बेटा डॉक्टर ही बने

यहां एक और बात भी ध्यान देने की है, बच्चे को हम अच्छा बनाना चाहते हैं पर इच्छाओं के नाम पर ही प्रत्येक बाप अपनी इच्छा ही लादते हैं। हम अपने पैमाने से बालक का व्यवहार नापते हैं। जो हमें बुरा लगता है बालक को उससे दूर रखते हैं। इस तरह अपने विचार बरबस उनमें ठूस देते हैं कि हम अच्छा कर रहे हैं। यह हमारी भूल है। बालक की साधारण इच्छा को समझे-बूझे डांट कर दमन कर देना उनके कोमल मन में डाल देना होगा। जरूरी नहीं है कि डॉक्टर का बेटा मेडिकल में ही रूचि ले। हो सकता है कि उसमें कला के प्रति झुकाव हो। इसी तरह एक कलाकार का बालक नामी वकील बन सकता है। इसलिए मां-बाप को बालक की इच्छा समझकर उसे अच्छे कार्यों की तरफ मोड़ना चाहिए। वैसे भी यह ध्यान रखना चाहिये कि बिना बालक की इच्छा तथा चेष्टाओं को समझे बिना उन्हें सही दिशा का ज्ञान कराना संभव नहीं होता।

अनुशासनहीन तथा निराशावादी बन जाता है

अतः बच्चों को अधिक डांटना डपटना ठीक नहीं है। इससे बच्चा ढीठ हो जाता है। प्यार तथा सहयोग से वह सबकुछ समझने को तैयार रहता है पर जोर जबरदस्ती के आगे विद्रोह कर बैठता है। तब वह अनुशासनहीन तथा निराशावादी बन जाता है। याद रखिये कि स्नेहपूर्ण वातावरण में ही बच्चा प्रफुल्ल रह सकता है तथा कहना मानने का प्रयत्न करता है। हमें चाहिए कि समय-समय पर बालक के अच्छे कार्यों की प्रशंसा करते रहें। इससे उन्हें शक्ति मिलती है व प्रोत्साहन प्राप्त होता है।

सही-गलत व्यवहार का अंतर नहीं समझ पाता

कई बार अत्याधिक लाड के कारण भी मां-बाप बच्चे का जीवन बिगाड़ देते हैं। कई बार लापरवाही के कारण बच्चे बिगड़ जाते हैं तथा कोई बच्चा दूसरे बच्चे की चीज पसन्द आने पर चुपचाप अपने घर ले आये और मां उसे देखकर भी अनदेखा कर दे तो बालक धीरे-धीरे और चीजें उठाने लगेगा तथा चोर बन जायेगा। यदि प्रारंभ में ही मां उसे स्नेह से बता दे कि दूसरों की चीज चुपचाप उठाकर नहीं लानी चाहिए और स्वयं भी ऐसा कभी नहीं करे तो नादान बालक एक गंभीर दुर्गुण से बच सकता है। कुछ माताएं अपने बच्चे के कसूर को समझ कर भी दूसरे से कमर कस के लड़ने को तैयार रहती है। ऐसी मां का बच्चा गलत सही व्यवहार का अंतर नहीं समझ पाता।

मां के गुण अवगुण दोनों ग्रहण कर लेता है

वैसे तो माता पिता दोनों का ही बालक पर प्रभाव पड़ता है किन्तु निश्चय ही इसमें मां का अधिक भाग रहता है। बच्चा समय के साथ महिला स्वरूप मां का ही देखता हैं। बच्चे की मनोभूमि अत्यन्त ग्रहण शील होती है अतः अनजाने में ही वह मां के गुण अवगुण दोनों ग्रहण कर लेता है। महात्मा गांधी की मां अत्यंत धर्मनिष्ठ महिला थी। इतिहास प्रसि़द्ध वीर हग्मीर की मां के साहस से कौन अपरिचित होगा। आत्मबल से परिपूर्ण शकुन्तला का पुत्र शेर के मुख में हाथ डाल कर उसके दांत गिन लेता था। कौन नहीं जानता कि वीर शिवाजी की माता ने अत्यंत चातुर्थ तथा कौशल से अपने पुत्र में वीरोचित्त गुणों की नींव डाली थी। इसके विपरित इतिहास ऐसे उदाहरणों में यह बात है कि चरित्र हीन मां का बालक अच्छे गुणों से वंचित रह जाता है।

विश्वास रहित व अनुशासनहीन होकर उद्दंड व्यवहार करने लगता है

जिस प्रकार उपयुक्त जल तथा मिट्टी पाकर एक स्वरूप बीज पनप कर फूल उठता है तथा एक सुन्दर फल या फूल का रूप धारण करके सबको मन मोहता है उसी प्रकार अच्छे वातावरण में बच्चा हष्ट तथा विचारवान बनता है। जिस घर में हर घड़ी कलह रहती है वहां बच्चा घबरा जाता है तथा माता-पिता के प्रति कटु हो उठता है। उसका मनोबल क्षीण होने लगता है। वह विश्वास रहित व अनुशासन हीन होकर उद्दंड व्यवहार करने लगता है। इसी प्रकार जिस गृहस्थी में मां-बाप अपने आचरण के प्रति लापरवाह होते हैं तथा मम्कारी और धोखेबाजी से अपना स्वार्थ साधने में संकोच नहीं करते हैं और वहां बच्चे भी चालाक तथा झूठे हो जाते हैं।

कहानियां बच्चों में बड़े-बडे़ गुण अनजाने में ही भर देती हैं

बच्चों को साहसी बनाने के लिए छोटी-छोटी महात्माओं तथा वीर पुरूषों की कहानियां सुनानी चाहिए। बच्चों को कहानी सुनने में बड़ा आनन्द आता है। हमारे यहां बाल साहित्य में पंचतंत्र की कहानियां हमारे नन्हें मुन्नों के लिए अत्यंत उपयोगी है। यह छोटे-छोटे बच्चों में बड़े-बडे़ गुण अनजाने में ही भर देती हैं।

डांटकर चुप करा देना उनके प्रति अन्याय है

बच्चों को थोड़ा बहुत सांसारिक ज्ञान से भी परिचित कराते रहना चाहिए, उन्हें अपने देश तथा समाज के बारे में विशेष बातें बतानी चाहिए। आजकल बच्चे अत्यंत तीव्र बुद्धि के होते हैं उनके छोटे से मन में बड़ी-बड़ी समस्याएं आती हैं, उनके प्रश्नों का उत्तर शान्तिपूर्वक देना चाहिए। बहला-फुसलाकर उनको डांटकर चुप करा देना उनके प्रति अन्याय होगा। अतः छोटे बच्चों को भूत-प्रेत से नहीं डराना चाहिए। कई मातायें रोते बच्चों को ‘‘हौवा’’ कहकर चुप कराती हैं। ऐसा करने से बच्चा डरपोक बन जाता है तथा अंधविश्वास के प्रति श्रद्धा रखने लगता है।

जीवन के सबसे महत्वपूर्ण पाढ़ बच्चा घर की पाठशाला में ही सीखता है

महान व्यक्ति के व्यक्तित्व की नींव उसके बाल्यकाल में ही पड़ जाती है। जन्म के पश्चात जैसा मां-बाप बनाते है वैसा ही बच्चा बनता हैं। बच्चा तो कुम्हार की मिट्टी के समान कोमल होता है जिसे मां-बाप अपने चातुर्थ तथा कौशल से कोई भी रूप दे सकते हैं। जीवन के सबसे महत्वपूर्ण पाढ़ बच्चा घर की पाठशाला में ही सीखता है। उसके चरित्र निर्माण की नींव डालने वाली प्रथम आचार्या उसकी अपनी मां होती हैं। मैक्यूगल के अनुसार चरित्र मनुष्य के स्थाई भावों का पुनः हैं। इन्हीं की नींव पर मनुश्य के सारे कार्य निर्भर करते हैं।

सुख की प्रथम सीढ़ी अपने घर के वातावरण से ही प्रारंभ होती है

अंत में माताओं को यह समझना चाहिए कि मां का आलस तथा अज्ञान व जरा सी असावधानी उसके अपने ही लाडले के भविष्य में असफलता तथा निराशाओं की नींव डाल देती है। यदि हम चाहते हैं कि हमारा बच्चा जीवन में सुखी तथा सफल रहे तो हमें यह समझना होगा कि उसके सुख की प्रथम सीढ़ी अपने घर के वातावरण से ही प्रारंभ होती है। #


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