मौसम का हमारी सेहत पर प्रभाव?
‘‘चले पुरवइया
तो उखड़े जोड़’’ कहते हुए पहलवानों को हम प्रायः सुनते हैं।
वर्षा ऋतु में जब पुरवइया चलती है तो उनकी पुरानी चोटें उखड़ जाती है तथा उनमें
दर्द होने लगता है, यह दर्द बरसात भर बना रहता है, तथा वर्षा समाप्ति पर समाप्त हो जाता है। इसी प्रकार से होली के बाद का एक
माह खांसी तथा तपेदिक के रोगियों के लिए अत्यन्त कष्टदायी होता है। इसी प्रकार यह
सर्वज्ञात तथ्य है कि अधिक शीत, ग्रीष्म या वर्षा में आलस्य
आता है तथा सामान्य कार्य भी दूभर हो जाता है। इसके विरुद्ध समशीतोष्ण ऋतु में
कार्य कुशलता बढ़ जाती है। ऋतुओं का यह
प्रभाव केवल अपने देश में ही नहीं पाया जाता बल्कि संसार के प्रत्येक राष्ट्र इससे
प्रभावित है।
बदलते
मौसम से बदलते सेहत का कारण
जर्मनी में जब पर्वत
से सूखी तथा गर्म हवा चलती है तो निकटवर्ती प्रदेश में विचित्र स्थिति व्याप्त हो
जाती है। आपसी झगड़े, मार्ग दुर्घटनायें मानसिक
विकार, हृदय रोग बढ़ जाते हैं। किन्तु सामान्य मौसम के आते ही
ये परेशानी दूर जो जाती है। इस विचित्र स्थिति को कोहन रोग के नाम से जाना जाता
है। कुछ काल पहले तक तो वैज्ञानिक इनको केवल मनावैज्ञानिक रोग ही समझते रहे हैं।
किन्तु जैसे-जैसे और तथ्य सामने आए, स्थिति साफ होती चली गई
तथा इस असाधारण स्थिति पर खोज की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी है।
मानवीय
तंत्र को प्रभवित करता है मौसम
पिछले महायुद्ध की
समाप्ति पर जर्मन डॉक्टर मेनफ्रेड क्यूरी ने इस पर खोज करने का निश्चय किया। किन्तु
कोई विशेष तथ्य ज्ञात न प्राप्त हो सका। डॉक्टर क्यूरी की असफलता के लगभग 20 वर्ष बाद जर्मनी के हैम्बर्गै मौसम विज्ञान केन्द्र तथ एक जर्मन डॉक्टर
बर्न हार्ड डेरडर ने खोज करने का निश्चय किया। इनके द्वारा की गई खोज के अनुसार यह
तो निश्चित हो गया है कि मौसम मानवीय तंत्र को प्रभवित करता है, किन्तु मौसम का कौन सा प्रभाव मानवीय तंत्र के किस प्रभाग को प्रभावित
करता है इस पर कोई विशेष प्रगति नहीं हुई।
मौसम के बदलते ही
मौसम पर आगे खोज करने
के लिए हैम्बर्ग मौसम विज्ञान केन्द्र ने एक समिति बनाई जिसमें औषधि विशेषज्ञ, भौतिक शास्त्री तथा मौसम विशेषज्ञ थे। इन विशेषज्ञों ने मौसम के कारण
उत्पन्न होने वाले रोग या रोग में बढ़ाव इत्यादि पर आंकड़े एकत्र किए तथा उनके आधार
पर कुछ सिद्धांत प्रतिपादित किए। इन सिद्धान्तों के अनुसार शीत आरंभ होने के पहले
स्वस्थ व्यक्ति अपने को अस्वस्थ अनुभव करने लगता है तथा उसे सर में दर्द, शारीरिक थकान व अनिद्रा की आम शिकायत हो जाती है। इस रिपोर्ट के अनुसार
रोगी का रोग बढ़ जाता है, उसके पुराने दर्द उमड़ जाते हैं और
गठिया वात, हृदय रोग की आम शिकायत हो जाती है।’’ मौसम के किस प्रभाव का मानव तंत्र के किस प्रभाग पर अधिक प्रभाव पड़ता है?
इस प्रश्न के उत्तर के लिए हमें मौसम के बारे में में जानना आवश्यक
है। सामान्य रूप से तापक्रम, वायुदाब, बादल
धूप तथा आद्रता के मिश्रण को मौसम कहते हैं। किन्तु नवीन खोजों के अनुसार इसका एक
आवश्यक भाग और है और वह है वायुमंडलीय विद्युत आवेश।
बालू
से तेल निकालने वाले व्यापारियों ने इसका खूब लाभ उठाया
उपरोक्त रिपोर्ट के
अनुसार मानवीय तंत्रों पर इन विद्युत आवेशों का अत्याधिक प्रभाव है। यदि यह कहा
जाए कि इनके कारण मानव चैतन्य तथा उत्साहवान होता है तो कोई अतिश्योक्ति न होगी।
इस रिपोर्ट के प्रकाशन के कुछ ही दिनों में बालू से तेल निकालने वाले व्यापारियों
ने इससे लाभ उठा लिया। भांति-भांति के जाली उपकरण बाजार में बिक्री हेतु आए। इनके
बनाने वालों का कथन था कि इन उपकरणों को धारण करने वाला व्यक्ति मौसम के प्रभाव से
अप्रभावित रहता है। लेकिन कुछ ही दिनों में इन उपकरणों की अनुपयोगिता सामने आ गई
तथा बिक्री समाप्त हो गई।
वायुमंडलीय
विद्युत आवेश आयन मंडल से पृथ्वी पर आता है
वर्तमान समय ये जो
खोज इस विषय पर हो रही है उसमसें डज्ञ. वरनर रैनशित फोम्स डार्क का योगदान महत्वपूर्ण
है।अपने प्रयोगों में उन्होनें जानवरों पर मौसम संबंधित परीक्षण किए हैं। डॉ. वरनर
के अनुसार वायुमंडलीय विद्युत आवेश आयन मंडल से पृथ्वी पर आता रहता है। वायुमंडलीय
विद्युत आवेश के होने के कई कारण होते हैं जिनमें मुख्य है, कासमिक किरणें रेडियोधर्मी पदार्थों से विकिरण, छोटी
पराबैंगनी तरंगे तथा तड़ित विद्युत। हैम्बर्ग अनुसंधान समिति के अनुसार इन विद्युत
आदेशों से बचाव प्राकृतिक रूप से असंभव है। इस कथन की पुष्टि के लिए उन्होनें
फैराडे जाली बनवाई तथा उसमें स्त्री पुरूषों को रखकर उन पर परीक्षण लिए। इन
परीक्षणों ने समिति के कथन की पुष्टि की।
अचेतना
को दूर करने के लिए विद्युत आवेशों की उपस्थिति आवश्यक है
फ्राईवर्ग
विश्वविद्यालय के मौसमी शरीर विज्ञान विभाग ने भी इस पर विचार किया और यह स्वीकार
किया कि वायुमंडलीय विद्युत आवेश काफी रूकावटों को पार कर सकते हैं। अतः यदि जाली
विद्युत आवेश के प्रभाव को कम न कर सके तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इस तथ्य को
ध्यान में रखकर डा. वरनर ने इस्पात का कटघरा बनाया। इस कटघरे की दीवार 3 मि.मी की थी। जब उन्होंने इस कटघरे मे हेस्टेर को रखा तो वह अचेत हो
गया।इस परीक्षण की समीक्षा करते हुए उन्होनें कहा कि यह अचेतन्यता को वायुमंडलीय
विद्युत आवेशों की अनुपस्थिति के कारण है। इस अचेतना को दूर करने के लिए विद्युत
आवेशों की उपस्थिति आवश्यक है। डा. वरनर के अन्य परीक्षणों से इस कथन की पुष्टि
हुई।
परिवर्तनों
से सामान्य चैतन्यता बनी रहती है
उपरोक्त परीक्षण से
यह निश्चित हो गया कि मानव की सामान्य चैतन्यता के लिए वायुमंडलीय विद्युत विकिरण
की आवश्यकता उसी प्रकार से है जैसे, सामान्रू
तापक्रम, वर्षा इत्यादि की है। इसके अतिरिक्त मानव शरीर की
यह विशेषता है कि वह अपने को कम या अधिक विकिरण के अनुरूप उसी प्रकार कर लेता है
जिस प्रकार से प्रकाश में घटाव-बढ़ाव को या तापक्रम परिवर्तन को। वास्तविकता तो यह
है कि इन परिवर्तनों से सामान्य चैतन्यता बनी रहती है। जहां मौसम के मानव
स्वास्थ्य पर प्रभाव की बात है उसके लिए वायुमंडलीय विकिरण की तीव्रता में
परिवर्तन ही जिम्मेदार है। इस समस्या पर और अधिक परीक्षण के लिए जर्मनी के कीव नगर
के अस्पताल में इस्पात के कटघरे बनाए गए हैं। इन कटघरों में कृत्रिम रूप से मौसम
तथा विद्युत विकरण उत्पन्न किए जा सकते हैं। इनक कटघरों में जो प्रयोग किए गए हैं
उनसे भी डॉ. वरनर के कथन की पुष्टि होती है। उपरोक्त कटघरे अत्यन्त महत्वपूर्ण
सिद्ध होंगे। ऐसा वैज्ञानिकों का अनुमान है, कि इनमें
कृत्रिम रूप से ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न की जा सकेगी जो मौसम परिवर्तन के कारण
उत्पन्न रोगो की विभीषिका कम कर सकेगी।#
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