समस्याओं की बेड़ियों में जकड़ी भारत की प्रगति
विश्व का कोई भी देश या समाज अपने आप में न तो पूर्णत: समृद्ध है और न ही सुव्यवस्थित। हर एक देश की चाहे वह छोटा हो या फिर बड़ा अपनी-अपनी समस्याएं हैं। कल जो उपनिवेशवादी देश जिन्होंने विश्व की तमाम संपत्ति को अपने यहां संचय किया था और अति समृद्धशाली माने जाते थे वे आज आर्थिक संकट के कगार पर जा खड़े हुए हैं। इसी के साथ-साथ अमेरिका और जापान जैसी बड़ी आर्थिक शक्तियां अभी भ्रष्टाचार और आर्थिक घोटालों के दृष्टांत से ऊपर नहीं है। वहां के बड़े नेताओं पर भी तमाम तरह के भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहते हैं।
वर्ष 1947 में स्वतंत्रता के समय भारत की आर्थिक स्थिति और विकास की दर बहुत कमजोर थी। यदि आर्थिक और सामाजिक जीवन के किसी भी पहलू को लिया जाए तो हमने पिछले सात दशकों में आशातीत सफलता प्राप्त की है। एक पिछड़े देश से हम एक विकासशील देश बनकर उभरे हैं और आज हम विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में अपना एक विशेष स्थान रखते हैं। यह सही है कि हमें अभी भी तमाम क्षेत्रों में कई काम करना बाकी है। नेता से लेकर सामान्य जन तक यह बात कहते हैं कि हमारे देश व समाज के सामने तमाम तरह की बड़ी समस्याएं हैं जिनका समाधान ढूंढे बिना समाज और देश का विकास संभव नहीं है। आज हम देश की स्वतंत्रता की 73 वर्षगांठ मना रहे हैं। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम यह देखें कि आखिर हमारे सामने ऐसी बड़ी-बड़ी समस्याएं कौन सी हैं जो हमें विचलित करती हैं और इन समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। वैसे तो 130 करोड लोगों के इस देश में समस्याएं भी अनगिनत हैं, लेकिन फिर भी हमें अपने देश की स्थिति का आंकलन करने के लिए बड़ी-बड़ू़ी समस्याओं को कई भागों में बांट सकते हैं और साथ ही साथ उनके समाधानों के बारे में भी सोच सकते हैं।
समस्या 1 : आतंकवाद
लगभग तीन दशकों से हम किसी ना किसी रूप में आतंकवाद की समस्या से जूझ रहे हैं। इस समस्या के कारण जहां एक और हमारी सेना, अर्धसैनिक बल और पुलिस पर बहुत खर्च बढ़ा है, वहीं समाज में असुरक्षा की भावना आई है। इसका परिणाम समाज के मनोवृति पर भी साफ दिखाई देता है। हमारे शांतिपूर्ण समाज में हिंसा और असहिष्णुता की भावनाएं बढ़ी हैं और इसके कारण अपराधों का ग्राफ भी बढ़ा है। क्या आतंकवाद की समस्या का कोई हल नहीं है और यदि है तो इसके लिए हमें क्या करना चाहिए?
समाधान : देश में आतंकवाद की समस्या के दो पहलू हैं। पहला पहलू यह है कि पाकिस्तान द्वारा कश्मीर जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में आतंकवादी गतिविधियों का प्रचार करके अपने सामाजिक हितों को आगे बढ़ाने का प्रयास। दूसरा पहलू यह है कि देश के विभिन्न वर्गों का मुख्यधारा में समाहित न हो पाना है और उन्हें अन्याय की अनुभूति होना है। यह स्पष्ट है कि समस्या के पहले पहलु को हम सीमा की बेहतर सुरक्षा, सेना तथा अर्धसैनिक बलों के सतत प्रयास द्वारा सुलझा सकते हैं। साथ-साथ आवश्यकता इस बात की भी है कि हम कूटनीतिक पहल कर पड़ोसियों से अपने संबंधों को सुधारें। पिछले एक दशक में इस दिशा में प्रयास तो अवश्य हुए हैं, लेकिन चीन और पाकिस्तान जैसे देशों से हमारे संबंध गतिरोध का शिकार है। इस स्थिति के लिए केवल भारत दोषी नहीं है। बल्कि पाकिस्तान की राजनीति प्रकृति यानि कि भारत विरोध करने की है। ऐसे में केवल अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति के सहारे ही पाकिस्तान को अपना रवैया बदलने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। इस मोर्चे पर भारत के हाथ अब तक कोई बड़ी सफलता नहीं लगी है।
समस्या का दूसरा पहलू देश की स्थिति से जुड़ा है। शायद हमारे लिए सबसे ज्यादा चिंता का विषय नक्सली हिंसा है जिसका सीधा कारण यह है कि हमने आदिवासी और जनजातीय क्षेत्रों के विकास पर समुचित ध्यान नहीं दिया है और इन क्षेत्रों के प्राकृतिक संसाधनों का व्यापारिक हितों के लिए अनियंत्रित दोहन को रोकने के लिए कोई भी कारगर कदम नहीं उठाए। बीच-बीच में इस बात के संकेत मिलते रहे हैं कि सरकार नक्सली हिंसा को केवल कानून व्यवस्था की समस्या न मानकर सामाजिक और आर्थिक असमानता तथा असंगत विकास की समस्या के रूप में देखने लगी है। लेकिन इस मसले पर स्पष्ट नीति और दीर्घकालिक योजना न होने के कारण यह समस्या घूम फिर कर टकराव की स्थिति में ही आ खड़ी होती है।
घरेलू हिंसा और नक्सली हिंसा की आतंक की समस्या का सीधा समाधान गरीब और वंचित जनजातीय क्षेत्रों का वांछनीय और साझेदारी भरा विकास है। ऐसा विकास मात्र सड़क बनाने और बिजली पहुंचने मात्र से नहीं होगा। उसके लिए आदिवासियों व जनजातियों के समग्र विश्व विकास की पृष्ठभूमि बनानी पड़ेगी तथा यह सुनिश्चित करना पड़ेगा कि देश के विकास का लाभ उन तक पहुंच सके। इसी के साथ-साथ उनके क्षेत्रों के प्राकृतिक संसाधनों पर उनके पारंपरिक अधिकार की स्वीकृति होनी चाहिए। साथ ही इन अधिकारों के साथ किसी तरह की छेड़छाड़, अवैध दोहन व शोषण के विरुद्ध सख्त और प्रभावी कदम उठाने होंगे। ऐसा करने के लिए कानूनों में जरूरी बदलाव भी करने होंगे। इस बात की भी आवश्यकता है कि हम समाज के वंचित वर्गों के शोषण के विरुद्ध एक व्यापक और प्रभावी जनमत बनाएं।
समस्या 2 : लचर विदेश नीति
चीन तथा पाकिस्तान जैसे पड़ोसियों के साथ हमारे संबंध तनावपूर्ण हैं। बांग्लादेश तथा नेपाल भी हमें हमेशा शंका की दृष्टि से देखता रहा हैं। क्या सीमाओं पर ऐसे पड़ोसियों का होना असुरक्षा की भावना नहीं पैदा करता है। यदि हां, तो उसका क्या समाधान है और इसके लिए हमें क्या करना चाहिए। हमारे सामने आज यह बड़ा प्रश्न है।
समाधान : यदि हम चीन और पाकिस्तान के साथ अपनी समस्याओं का आंकलन करें तो हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि इन समस्याओं का मूल कारण अंतर्राष्ट्रीय सीमांत के वे झगड़े हैं जो उपनिवेशवादी शासक हमारे लिए सौगात में छोड़ गए थे।
द्वित्तीय विश्वयुद्ध के बाद पश्चिमी यूरोप के उपनिवेशवादी देश जब एशिया और अफ्रीका से वापस जाने को मजबूर हुए तब उन्होंने तमाम राज्यों में ऐसी राजनीतिक समस्याएं छोड़ी जो कि आज तक गले की फांस बनी हुई है।
इजरायल और फिलिस्तीन का झगड़ा, कोरिया की समस्या, अफगानिस्तान और पाकिस्तान के अंतर्राष्ट्रीय सीमा और पश्चिम एशिया देश के सीमा झगड़े आदि उपनिवेशवाद की ही देन है। भारत, चीन और पाकिस्तान को अपनी सीमाओं के झगड़े को इसी पृष्ठभूमि के तौर पर देखा जाना चाहिए। ऐसे तमाम छोटे-मोटे झगड़े को सुलझाने में हाल के वर्षों में काफी सफलता मिली है।
भारत और पाकिस्तान ने कच्छ के रण में सीमा विवाद को तथा बांग्लादेश के साथ बंगाल की खाड़ी में कुछ क्षेत्रों में आधिपत्य के प्रश्न को शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाया गया है। आवश्यकता है कि हम लोग कूटनीतिक प्रयासों द्वारा इन झगड़ों को सुलझा कर विकास की राह पर आगे चलें।
समस्या 3: ढीली प्रशासनिक व्यवस्था
शायद आज भारत की सबसे बड़ी समस्या हमारी लचर प्रशासनिक व्यवस्था है। आने वाले समय की चुनौतियों से निपटने के लिए हमारी मौजूदा प्रशासनिक व्यवस्था अक्षम साबित हो रही है। छोटे-छोटे निर्णय लेने में देरी के कारण जहां एक ओर प्रगति का मार्ग रुकता है, वहीं दूसरी ओर भ्रष्टाचार पनपता है। क्या इस समस्या का कोई समाधान नहीं है?
समाधान : हमारी सबसे बड़ी समस्या यह है कि हमने ब्रिटिश शासन काल की प्रशासनिक व्यवस्था को बिना किसी बड़े परिवर्तन के साथ अपनाया है। ब्रिटिशकालीन प्रशासनिक व्यवस्था के दो मुख्य आधार थे। पहला, भारत की जनता को कानून द्वारा भारत के नागरिकों में विश्वास भाव बनाए रखना था और दूसरा कानून का भय दिखाकर सरकारी व्यवस्था द्वारा उन पर दबाव बनाए रखना था। आजादी के बाद देश में इन दोनों ही मनोवृतियों को खत्म करने के तरीकों पर जोर देकर प्रशासन को संवेदनशील और सरकारी तंत्र को जनता के अनुकूल बनाया जा सकता है। आज ऐसी तमाम संस्थाएं है जो प्रशासन में आम जनता की भागीदारी को सुनिश्चित करती है। लेकिन आवश्यकता इन संस्थाओं में विश्वास रखने की है।
समस्या 4 : भ्रष्टाचार का नासूर
पिछले कुछ वर्षों से हमारे सार्वजनिक जीवन पर भ्रष्टाचार का मुद्दा छाया रहा है। लगता है कि सारा देश चरित्रहीन और भ्रष्ट है और इसी कारण न हम प्रगति कर पाएं हैं और न ही दुनिया में किसी को अपना मुंह दिखाने लायक रह गएं हैं। पर क्या वास्तव में भ्रष्टाचार इतनी बड़ी समस्या है। क्या हम ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार की इस बीमारी से इतने ग्रसित हो गए हैं कि इसका उपचार ही संभव नहीं है।
समाधान : भ्रष्टाचार वास्तव में एक बड़ी समस्या है, लेकिन हमारे देश में इस पर जो बहस हो रही है वह भावनात्मक और नैतिक ज्यादा है पर विश्लेषणात्मक कम है। इसी कारण हम इस समस्या के समाधान की ओर नहीं बढ़ पा रहे हैं और सारी बहस हमारे अंदर निराशा और आत्मगिलानी भर रही है। भ्रष्टाचार समस्या के निदान के लिए यह आवश्यक है कि पहले इस समस्या का समाजशास्त्रीय विश्लेषण हो और हमें पता होना चाहिए कि समाज के कौन-कौन से वर्ग देश की व्यवस्था चलाने में क्या योगदान दे रहे हैं और उनके पास क्या साधन, सुविधाएं और अवसर हैं।
कुछ गंभीर प्रश्नों का उत्तर तलाशने हुए हम इन स्थितियों को समझ सकते हैं। ऐसा पहला प्रश्न है कि भारत में लोकतंत्र तो है लेकिन चुनाव लड़कर एक अच्छा आदर्शवादी और सुशिक्षित आदमी विद्यार्थी संस्थाओं में कैसे आ सकता है? यदि वह चुनाव लड़ने का मन बना भी लेता है तो उसके आसपास इस काम के लिए धन कहां से आएगा? हमारी लोकतंत्र व्यवस्था वास्तव में बहुत अच्छी है और हमें इस पर गर्व भी है। लेकिन लाख रुपए का सवाल यह है कि ईमानदार और अच्छे लोग जिनके पास चुनाव लड़ने का पैसा नहीं है, वह लोग इस व्यवस्था में देश के पदों पर कैसे आएंगे। क्या इसका अर्थ यह नहीं है कि चुनाव जीतकर संसद व विधान मंडलों में केवल धनवान और या उनके पोषित लोग ही जा सकते हैं और क्या फिर ऐसे लोग व्यवस्था को अपने व्यापारिक व आर्थिक हितों के अनुकूल नहीं ढालेंगे?
इसके अतिरिक्त, भ्रष्टाचार से जुड़े कई मुद्दे हमारी उस सामंतवादी शासन प्रणाली का परिणाम है जो छोटे-छोटे कामों के लिए लंबी कागजी कार्रवाई में फंसी रहती है। यदि हमारे कायदे कानून सरल कर दिये जाए तो काफी कुछ भ्रष्टाचार ऐसे ही समाप्त हो सकता है। भ्रष्टाचार के लिए केवल सरकार और सरकारी कर्मचारी ही दोषी नहीं है। गरीबी से दूर हुए बहुत बड़े सामाजिक वर्ग की लालसा एक अच्छा और ऐसा सुखद संपन्न जीने की होती है जिसके लिए उनके पास साधन नहीं होते हैं। फिर बाजार की चमक दमक भी उनको ललचाती है और ऐसी स्थिति में अपनी कमाई बढ़ाने का प्रयास करना एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है जिसका दोषी समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग है ना कि सिर्फ कुछ बड़े नेता और अधिकारी भ्रष्टाचार की समस्या को समाप्त करने के लिए सबसे पहले सादा जीवन उच्च विचार के पुराने आदर्श को पुनः स्थापित करना पड़ेगा। इसके साथ-साथ तमाम विज्ञापनों और बाजारू चीजों के प्रदर्शन पर रोक लगने लगानी होगी जो आम आदमी को उसकी आर्थिक स्थिति से ज्यादा खर्च करने को प्रेरित करते हैं। कार और तमाम तरह के उपभोक्ता पदार्थों पर मिलने वाले बैंक लोन पर भी प्रतिबंध लगाना होगा। उससे कम हुई उत्पादकता को अन्य जन आवश्यकता वाले क्षेत्र की ओर मोड़ना होगा। इसके साथ-साथ हमें एक ऐसे सामाजिक आंदोलन की आवश्यकता है जिसमे हम भ्रष्ट और बेईमान लोगों का बायकट कर सकें। ईमानदार तथा ईमानदारी के आदर्श पर चलने वाले व्यक्तियों को सम्मान मिल सके। कुल मिलाकर भ्रष्टाचार के विरुद्ध युद्ध करने के लिए एक सामाजिक आंदोलन की आवश्यकता है।
समस्या 5 : असमान आर्थिक विकास
दुर्भाग्यवश भारत एक आर्थिक विषमता वाला देश है। एक ओर जहां देश में करोड़पतियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है वहीं दूसरी ओर गरीबी और बदहाली ने भी करोड़ों भारतीयों को अभी तक अपने चंगुल में फंसा रखा है। पिछले 30-35 वर्षों में आर्थिक उदारवाद ने इस विषमता को आगे बढ़ाया है। यदि बदली हुई दुनिया में समाजवादी अर्थव्यवस्था संभव नहीं है तो क्या यह आवश्यक है कि आर्थिक विषमता भी इतनी अधिक बढ़े।
समाधान : एक पूंजीवादी व्यवस्था में भी हम अर्थव्यवस्था को आम जनता के हित में मोड़ सकते हैं। आर्थिक विकास से प्राप्त राजस्व का अधिक से अधिक उपयोग गरीबों के लिए मकान बनाने, शिक्षा व स्वास्थ्य सुविधाएं देने के लिए रोजगार के अवसर मुहैया कराने के लिए तथा सार्वजनिक वितरण व्यवस्था को मजबूत करने के लिए किया जा सकता है। पर दुख की बात है कि ऐसा कुछ नहीं हो रहा है। आज सारा का सारा विकास उच्च मध्यवर्गीय और मध्यम वर्ग के लिए हो रहा है। आर्थिक रूप से पिछड़े या निम्न वर्गों के लिए इन योजनाओं में कोई जगह नहीं है। यदि हम देश से आर्थिक असमानता को दूर करना चाहते हैं तो हमें देश के गरीब और वंचित वर्गों के लिए प्रभावी कदम उठाने पड़ेंगे। ऐसा करना देश में वर्ग संघर्ष को खत्म करने और अच्छी कानून व्यवस्था लागू करने के लिए भी आवश्यक है।
समस्या 6 : महंगाई डॉयन
अर्थव्यवस्था के मौजूदा मॉडल में महंगाई देश की सबसे बड़ी समस्या है। इस वर्ष कमजोर मानसून के कारण डर है कि महंगाई और अधिक बढ़ेगी तथा निरंतर बढ़ेगी। महंगाई के समस्याओं से हमें छुटकारा नहीं मिल रहा है।
समाधान : महंगाई का अर्थ है आम उपयोग की चीजों में मूल्यवृद्धि जिसके मुख्य कारण दो हो सकते हैं। पहला पूर्ति का मांग से कम होना जिसका कारण अधिक मूल्य देने वालों को ही कोई वस्तु प्राप्त हो सकती है। दूसरा कारण किसी उत्पाद की लागत बढ़ना। इन दो कारणों के अतिरिक्त महंगाई बढ़ने का कोई अन्य कारण नहीं होता। जहां तक अधिक मांग और कम आपूर्ति की बात है। यह वास्तव में अर्थव्यवस्था के लिए स्वास्थप्रद संकेत है। मांग को पूरा करने के लिए उत्पादन बढ़ता है। जिससे आर्थिक प्रक्रिया और भी तेज होती है। हमारे देश के संदर्भ में मांग लगातार बढ़ रही है और आपूर्ति उसका पीछा कर रही है जिससे आर्थिक प्रक्रिया तेज हो रही है। यह वास्तव में अच्छा संकेत है।
आवश्यकता इस बात की है कि उत्पादन बढ़ाने की प्रक्रिया को और भी तेज किया जाए और वस्तुओं के अभाव में मूल्य ना बड़े। अधिक मांग और कम पूर्ति में कालाबाजारी भी पनपती है जो महंगाई का बहुत बड़ा कारण होती है। यदि हमें महंगाई पर काबू पाना है तो कालाबाजारी के विरुद्ध कड़े कदम उठाने पड़ेंगे। महंगाई को रोकने का एक और तरीका सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत करना भी है। यह दुख की बात है कि हम लोग जनहित के आवश्यक काम को पूरे तरीके से नहीं कर पाए हैं। सार्वजनिक वितरण प्रणाली में भूतपूर्व सैनिक और समाजसेवी संगठनों की सेवाएं ली जानी चाहिए।
महंगाई की सबसे अधिक मार गरीब पर पड़ती है। एक गरीब आदमी की आवश्यकता बहुत सीमित होती है। यदि 8-10 चीजें जैसे नमक, गुड़, केरोसिन, गेहूं, चावल, दाल, मोटा, कपड़ा, माचिस, कड़वा, तेल आदि कुछ चीजों के दाम सुनिश्चित कर दिया जाए तो एक बहुत बड़े वर्ग को राहत मिल जाएगी।
समस्या 7 : पेयजल और बिजली की समस्या
जल मानव जीवन की मूलभूत आवश्यकता शामिल है और बिजली के बिना किसी सभ्य समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है। लेकिन यह दोनों ही चीजें हमारे देश के लिए बहुत बड़ी समस्या बन चुकी हैं। लगातार बढ़ती जनसंख्या और बदलते जीवन स्तर के कारण इन दोनों आवश्यक वस्तुओं की मांग में भारी इजाफा हुआ है। क्या निकट भविष्य में जल और बिजली की समस्याओं का कोई समाधान संभव नहीं है।
समाधान : बिजली उत्पादन क्षमता बढ़ाना ना सिर्फ एक खर्चीला काम है बल्कि इसमें बहुत अधिक समय भी लगता है। इसी तरह जलापूर्ति की योजनाएं, खर्चीली तथा लंबा समय लेने वाली होती हैं। पिछले दिनों देश में बिजली उत्पादन की क्षमता बहुत अधिक बढ़ी है, जो कि अपने आप में एक अच्छी उपलब्धि मानी जा सकती है। लेकिन बढ़ती हुई मांग के आगे यह कम साबित हो रही है।
वास्तव में आवश्यकता इस बात की है कि देश के अधिक से अधिक संसाधन बिजली और नहर विकास योजनाओं में लगाया जाए जिससे उद्योग और कृषि को बढ़ावा मिल सके। इस दिशा में बिजली उत्पादन के गैर परंपरागत तरीकों पर भी विशेष जोर देने की आवश्यकता है। देश के पहाड़ी क्षेत्रों में छोटी-छोटी पवन बिजली योजनाएं भी लगाई जा सकती हैं। इसके अतिरिक्त देश में व्यापक रूप से सस्ते ईंधन की खोज करने की भी आवश्यकता है।
इस बात की भी आवश्यकता है कि पूरे देश में वाटर हार्वेस्टिंग की जाए। इससे देश के सूखाग्रस्त क्षेत्रों में भी पेयजल और कृषि जल की किल्लत से निपटा जा सकता है। केंद्र को भारत के नहरों को जोड़ने वाले एक पुराने प्रस्ताव पर भी विचार-विमर्श करने की आवश्यकता है।
समस्या 8 : हमारी बेड़िया
व्यवस्था के पूर्वाग्रह धार्मिक अंधविश्वास, वर्ग, संघर्ष और वैज्ञानिकता हमारी कुछ ऐसी बेटियां हैं जो हमारे विकास के मार्ग में रोड़ा बनी हुई है। इन्हीं के कारण ना हम प्रगति कर पा रहे हैं और ना ही विश्व के बड़े देशों में अपना सही स्थान बना पा रहे हैं। क्या इन बेड़ियों को तोड़ा नहीं जा सकता?
समाधान : यह एक विडंबना ही कही जाएगी जहां एक ओर हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था ने जाति व्यवस्था को मजबूत किया। वहीं दूसरी ओर मीडिया विशेषकर टीवी ने समाज में धार्मिक अंधविश्वास को बढ़ाया है। ना जनतांत्रिक व्यवस्था से आशा थी कि वह जाति व्यवस्था को और अधिक मजबूत करेगी और ना ही टीवी से यह उम्मीद थी कि वह धार्मिक अंधविश्वास को बढ़ाएगा। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि हमारी जनतांत्रिक व्यवस्था या टीवी जैसे जनसंचार माध्यमों का हमारी बेड़ियों को कमजोर करने में कोई योगदान नहीं है। वास्तव में समस्या यह है कि अब तक इन संस्थाओं का सही तरीके से उपयोग किया ही नहीं गया है।
आवश्यकता एक ऐसे सामाजिक आंदोलन की है जो हमें जाति और धर्म के संकुचित दायरे से निकालकर वैज्ञानिक चिंतन की ओर ले जाए। यह काम केवल कानून से होने वाला नहीं है। इसलिए स्वामी विवेकानंद और महर्षि अरविंद जैसे समाज सुधारकों और दार्शनिकों की आवश्यकता है। अपने व्यापक प्रजातंत्र द्वारा सरकार को और जगत को भी इन सामाजिक समस्याओं के विरुद्ध लामबंद होना पड़ेगा। मीडिया इस सामाजिक आंदोलन से पीछे नहीं रह सकता है। हमारी शिक्षा व्यवस्था में भी व्यापक सुधार की आवश्यकता है। जातिवाद का सबसे भयानक रूप, जातिगत संघर्ष तथा उससे बड़ी बात सांप्रदायिक तनाव व संघर्ष है। उन सब के मूल में शिक्षा और वैज्ञानिक सोच है। इसके साथ-साथ एक अन्याय की अनुभूति जो कि अक्सर आधारहीन होती है।
अन्य समस्याएं 9 : शर्मसार करती समस्याएं
महिला उत्पीड़न, बलात्कार, बालिका, भ्रूण, हत्या, बालश्रम वृद्धि तथा संवेदनहीन जैसे कुछ ऐसे समस्याएं हैं जो कि वास्तव में हमें शर्मसार करती है। इस बात पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं। क्या हम एक सनातन सभ्य राष्ट्रीय हैं, क्या हमें शर्मसार करने वाली इन समस्याओं का समाधान नहीं है?
समाधान : महिला उत्पीड़न, बलात्कार, भ्रूण हत्या जैसे तमाम अपराधों के लिए सशक्त कानून और उन कानूनों का कड़ाई से पालन करने की आवश्यकता है। इस बात की भी आवश्यकता है कि ऐसे सामाजिक अपराधियों का बहिष्कार हो और उनको समाज में कोई स्थान न दिया जाए। इस समस्या के समाधान के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति ही काफी नहीं है। आवश्यकता एक सामाजिक और व्यक्तिगत प्रतिबद्धता की है। समाज के लोगों को इसके लिए आगे आना होगा तब कहीं जाकर ऐसी समस्याओं से निजात मिल सकेगा।#
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