सरोजनी नायडू : मेरी स्मृतियां -- डी. एन. मजूमदार


सरोजनी नायडू की प्रतिभा से मैं प्रभावित पहले से ही रहा हूँ पर जब वो ढाका में दीक्षान्त भाषण देने के लिये आई तो मुझे उन्हे और करीब से देखने का मौका मिला क्योकि वो मेरी अतिथि थी। मैं उस समय ढाका विश्वविद्यालय का उप-कुलपति था अतः विश्वविद्यालय के दीक्षान्त समारोह के लिए जब मैंने उन्हें आमंत्रित करने का प्रस्ताव रखा तो कुलपति, जो अंग्रेज थे, ने कोई आपत्ति नहीं की क्योंकि वे स्वंय उनके प्रशंसक थे। परन्तु आध्यात्मिक रूप में विश्वविद्यालय का कुलपति गवर्नर भी होता है क्योंकि वे अंग्रेजीनामा के प्रकत बोधी एवं सरकार के विरूद्ध आन्दोलन करने वाले एक प्रमुख कांग्रेस के नेता के रूप में जनता उनको पहचानती थी। गवर्नर के सम्मुख छात्रों को सम्बोधित करने के संभावित खतरे की ओर मुझे किसी ने संकेत किया।

यह तय हुआ कि सरोजनी नायडू को बुलाने की स्वीकृत देने के बावजूद कुलपति अथार्त गवर्नर ने मुझे लिखा कि दीक्षान्त भाषण एक अग्रिम प्रति उनके पास भेज दी जाये। मैंने श्रीमती सरोजनी नायडू को बताते हुए एक प्रति भेज देने की बात लिखी परन्तु श्रीमती सरोजनी नायडू ने सिद्धान्त रूप ऐसा करने से इंकार कर दिया पर उन्होंने जो उत्तर भिजवाया उससे कुलपति को आपत्ति की गुंजाइश ही नहीं रही। सरोजनी नायडू ने यह बताया कि वे भाषण लिखेगी नहीं परन्तु बिना तैयारी के भाषण देगीं। मामला यहीं पर ठप हो गया और अग्रिम प्रति की मांग पर समझौता हो गया।

जब मैं ढाका से 8 मील दूर स्टीमर स्टेशन पर उनका स्वागत करने पहुंचा तो मुझे पता चला कि सुभाष चन्द्र बोस के कांग्रेस से निकल जाने के विरोध स्वरूप यहां श्रीमती नायडू को काले झड़े दिखाये जाने की तैयारी थी। उस समय तो नहीं पर रास्ते में हमें काले झंड़े मिले। मैंने स्थिति समझाने की कोशिश की और यह भी कहा कि इन्हें यह शिक्षा कांग्रेस ने ही दी है। उन्होंने हँसते हुए इस स्थिति का सामना किया। परन्तु इस प्रदर्शन का प्रभाव उनके दीक्षान्त भाषण पर अवश्य पड़ा क्योंकि उन्होंने छात्रों को राजनीति से दूर रहने की सलाह दी।  निःसन्देह उनका भाषण अविस्मरणीय था। वे इतना धाराप्रवाह बोली कि न तो मेरा निजी स्टेनोग्राफर न सरकारी स्टेनोग्राफर उसे लिख सके, यद्धपि दोनों बड़े ही योग्य माने जाते थे। दीक्षान्त सरोह के पश्चात् गवर्नर ने श्रीमती नायडू से मिलने की इच्छा प्रकट की। मैंने श्रीमती नायडू को बतलाया कि गवर्नर के निजी आग्रह के अतिरिक्त यह एक परंपरा है कि दीक्षान्त भाषण देने वाला व्यक्ति गवर्नर से एक शिष्टाचार की मुलाकात करता है। श्रीमती नायडू ने मिलने से साफ इन्कार कर दिया।

उस समय कांग्रेस ने उच्च अधिकारियों से मुलाकात करने से प्रतिबंध लगा रखा था। मैं इसमे दुविधा में पड़ गया। काफी समझाने के पश्चात मैंने उन्हें एक मध्यम मार्ग के लिये तैयार कर लिया। यह निश्चय हुआ कि श्रीमती गांधी गवर्नर से निजी मुलाकात करेगी और इस का समाचार प्रकाशित नहीं किया जायेगा। इसके अतिरिक्त यह भी निश्चय हुआ कि मुलाकात के स्थान पर कोई भी व्यक्ति नहीं दिखाई देना चाहिए। वहां केवल, मैं श्रीमती नायडू व गवर्नर ही आयेगें। ऐसा ही हुआ क्योंकि वहां मैं श्रीमती नायडू को लेकर राजभवन पहुंचा वहां कोई नहीं दिखाई दिया एक चपरासी तक नहीं। बातचीत के मध्य श्रीमती नायडू ने एक गिलास पानी माँगा। गवर्नर स्वंय ही पानी का गिलास लेकर आये। इस तरह यह मध्यम मार्ग का समझौता सफलतापूर्वक हो गया।

सरोजनी नायडू अपने कपडो के बारे में अत्यधिक सतर्क थी। प्रत्येक दिवस घर से बाहर जाते समय वे मेरी पुत्री से पूछ लेती थी कि साड़ी ठीक तरह से पहनी है या नहीं, पीछे को कहीं कम या अधिक तो नहीं लटक रही? निःसन्देह वो मेरा व मेरी बेटी की सलाह नहीं मानती थी क्योंकि उनकी धारणा थी कि आधुनिक फैशन के लिये हमारी आय नहीं है। यद्धपि वो हमारी बात को प्राथमिकता देती थी परन्तु भोजन तथा अन्य विषयों पर बहुत खुले स्वभाव में वो बातें करती थी। मुझे आज भी याद है कि प्रथम दिन ही भोजन की मेज पर उन्होंने बतलाया कि “मुझे चिकन का गिर्जड़ बहुत पसन्द है। जब भी चिकन बनता उन्हें सदा हँसी के गुब्बारों के साथ चिकन दिया जाता। उस समय पहले प्रसंग में जो हँसी छूटती उसमे वें खुलकर भाग लेती थीं। श्रीमती नायडू वहाँ हमारे वार्तालाप में सहज भाव से घुलमिल जाती थीं। एक ओजस्वी वक्ता के रूप में सरोजनी नायडू का स्थान बहुत उंचा था। दीक्षान्त भाषण के अतिरिक्त उन्होंने अन्य भाषण भी दिये थे। इनमें साहित्य पर दिये अनेक भाषण की भारी सराहना की गई थी और पूरी प्रशंसा हुई।

दुर्भाग्य से वे लिखित रूप में नहीं बोलती थी परन्तु इतने धारा प्रवाह से बोलती थी कि कोई स्टेनोग्राफर उसे लिख नहीं सकते थे। अतः उनका रिकार्ड कर पाना कठिन था, भावी पीढ़ी उनसे वंछित ही रह गई। आज इस बात को अनेकों वर्ष बीत चुके है। आज वे जीवित नहीं है। फिर भी उनकी अनेक बाते मेरे मस्तिष्क में आज भी ताजा है। उनकी प्रतिभा और अभियन्ता आज भी मेरे सामने सजीव हो उठती हैं। #

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