मूर्तिकला कौशल और उसका इतिहास
प्रसिद्ध मूर्तिकार से किसी ने पूछा कि एक ऊबड़ खाबड़ अनगढ़ पत्थर से आपने इतनी सुंदर मूर्ति कैसे बना दी? आपकी मूर्ति कला का कौशल अद्भुत है। मूर्तिकार ने विनम्रता से उत्तर दिया-मैने कहाँ, कौन सी मूर्ति बनाई, मूर्ति तो उसी पत्थर के अंदर थी, मैने तो सिर्फ पत्थर के ऊपर की धूल झाड़ दी है।
अपनी मूर्ति गढ़ने के कौशल का श्रेय न लेना भले उस मूर्तिकार की अति विनम्रता थी पर उसे उन महान कलाकारों, चित्रकारों और मूर्ति कारों की महान परम्परा से जोड़ती हैं जो सदियों पूर्व पहाड़ की कन्दराओं, सुदूर गुफाओं में जाकर अपनी कलाओं को उकेरते थे और अनाम रहकर अपनी ख्याति से परहेज़ करते थे। अजंता ऐलोरा की गुफाएं आज भी इसकी साक्षी हैं। खजुराहो की अद्भुत मूर्तियां किन महान मूर्तिकारों ने गढ़ी इसकी जानकारी इतिहास के पन्नों में खोजने पर भी नहीं मिलती जबकि दूसरी तरफ आत्मश्लाघा के संतृप्त घोल की तरह अपने मूर्ति कौशल को भुनाने वालों की लंबी कतार भी है जिसका छोर अनंत है। जो अपनी नाखून जैसी कृति को भी पहाड़ खोदने जैसा श्रेय हासिल करने में ज़मीन आसमान एक किये हुए हैं। उनकी नज़र में उनकी सारी प्रतिभा, कला कौशल धंधे में बदल गई है। शायद वे भूल गए हैं कि समय और इतिहास किसी को भी माफ नहीं करता।
मुगल बादशाहों, नवाबों से लेकर राजा रजवाड़ों तक मे अपनी ख्याति बनाये रखने के लिए भवन, इमारतें दुर्ग, बनवाये जाते थे, बावलियां खुदवाई जाती थीं, सराय बनवाई जाती थी कालांतर में जमीदारों ने धर्मशाला, कुएं तक बनवाये। पर यह सारे कार्य कलाप सामाजिकता से जुड़े हुए थे। लखनऊ के छोटे बड़े इमाम बाड़े के बीच बना रूमी दरवाज़ा इसकी मिसाल है। अंग्रेजों के शासन के आते आते रोब दाब दिखाने के लिए अंग्रेज़ शासकों की मूर्तियां बनवाने का चलन शुरू हुआ।
मूर्ति कला में उफान अंग्रेजी शासन के दौरान आया जब महारानी विक्टोरिया की मूर्ति जगह-जगह लगाई गई। उनकी मूर्ति की सुरक्षा के लिए गारद भी लगाई गई। महारानी की मूर्ति की स्थापना एक धमक थी ब्रिटिश शासन की। इसके बाद लाट साहबों की मूर्तियों को लगाने की होड़ लग गयी। आम हिंदुस्तानी लाट साहबों की मूर्ति के पास गुजरते हुए सहम जाता था यही नहीं उसे सिर झुका के अदब भी दर्शाना पड़ता था। अंग्रेजी शासन के खत्म होते ही उन मूर्तियों को हटा कर धूल खाने के लिए छोड़ दिया गया।
इसके दूसरी ओर भक्ति भावना में साधू सन्तो की मूर्तियां लगाई गई लेकिन गोस्वामी तुलसी दास की मूर्ति के अलावा किसी भी सन्त महंत की मूर्ति को छतरी नसीब नही हुई। आज भी सूरदास, कबीर और नाहरदास की मूर्तियां जाड़ा, गर्मी, बरसात झेलती देखी जा सकती हैं।
महात्मा गाँधी, सुभाष चन्द्र बोस और नेहरू की मूर्तियों की स्थापना के बाद जिले से लेकर तहसील स्तर तक स्थानीय दिवंगत नेताओं की मूर्तियों की बहार दिखने लगी। बाद में डॉ अम्बेडकर की मूर्तियां बसपा की राजनीतिक पकड़ की साक्ष्य बनी। इसी के साथ जीवित नेता काशीराम के साथ ही बसपा सुप्रीमो मायावती की मूर्ति का अनावरण भी उन्ही के हाथों सम्पन्न करते होने का दृश्य भी लोगों ने देखा।
पश्चात साहित्य और सांस्कृतिक पक्ष भी कैसे अछूता रहता। प्रेमचन्द से लेकर महावीर प्रसाद द्विवेदी, श्याम सुंदर दास, पुरुषोत्तम दास टण्डन की मूर्तियां भी सरकारों की साहित्य प्रियता की साक्ष्य में लगाई गईं। काशी और इलाहाबाद का कोई चौराहा, पार्क और सड़क नही बचा जो मूर्तियों से आच्छादित न हो। नाटी इमली के चौराहे पर “वंशी और मादल” के रचनाकार प्रख्यात साहित्यकार ठाकुर प्रसाद सिंह की मूर्ति लगाने का जब प्रस्ताव आया तब भी ईश्वर गंगी के रास्ते पर पूर्व मुख्यमंत्री टी एन सिंह की मूर्ति न लग पाने का शिकवा भी उठा।
ठाकुर प्रसाद सिंह की प्रतिमा का लोकार्पण तत्कालीन राज्यपाल विष्णुकांत शास्त्री ने यह कहते हुए किया कि वे मेरे बड़े भाई थे। उन्हें हम सभी ठाकुर भाई कहा करते थे मैं भी उन्हें प्रणाम निवेदित करने आया हूँ। अकेले ठाकुर भाई की प्रतिमा उस चौराहे पर आज भी लगी है जिन्हें उनके परिवार जन निश्चित तिथि पर माला बदलते रहते है जब कि काशी की सैकड़ो प्रतिमाएं ऐसी है जिन्हें लगा कर लोग भूल गए है उनकी धूल झाड़ने भी कोई नही आता। हां, मालवीय जी की प्रतिमा जरूर इसकी अपवाद है जिसकी झाड़ पोंछ सरकारी तौर पर हर पखवारे की जाती है और उधर से निकलने वाले मालवीय जी की प्रतिमा को बिना प्रणाम किये नही रह पाते। उनका अटूट रिश्ता आज भी कायम है।
दिलचस्प बात यह है कि जिन महान भावों की प्रतिमा लगाई जाती है उन्ही की हो यह जरूरी नही है। प्रदेश की राजधानी के एक बड़े चौराहे पर हुई एक दुर्घटना के बाद जब एक ड्राइवर से पूछा गया कि दुर्घटना के समय किधर देख रहा था उसने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया कि सर! मैं देख रहा था कि नेता जी की जगह किसकी मूर्ति लगी है?
इससे भी दिलचस्प वाकया निराला जी की मूर्ति को लेकर है जिसे तत्कालीन महापौर की अनुपस्थिति में लगा दी गयी थी। जब महापौर ने प्रतिमा का अनावरण किया तो वे भी अचम्भे में पड़ गए। निराला जी के स्थान पर प्रसिद्ध शायर मीर अनीस की प्रतिमा लगा दी गयी थी। महापौर ने स्थिति सम्भालते हुए कहा कि यही मूर्ति निराला जी की असली मूर्ति है जिसे कलाकार ने अपने मन के चक्षुओं से गढ़ा है।
श्री अमृतलाल नागर से निराला का अपमान सहन नहीं हुआ उन्होंने यह कहते हुए प्रतिमा स्थल पर अनशन प्रारम्भ कर दिया कि नागर के नगर में निराला का अपमान। नागर अपने प्राण दे देगा। सूचना पाकर महापौर प्रतिमा स्थल पर पहुंचे। नागर जी ने मुंह घुमा लिया। महापौर ने नागर जी को मनाते हुए कहा- नागर जी! मैं तो साहित्यकारों का सेवक हूँ एक दिन आपकी भी प्रतिमा मैं ही लगवाऊंगा। नागर जी सुनते ही लाल पीले हो गये “यानी मेरी जगह किसी और अनीस को खड़ा करोगे।”
महापौर ने वायदा किया क्षमायाचना की की मूर्तिकार के विदेश से लौटते ही निराला जी की नई प्रतिमा लगा दी जाएगी। नागर जी ने उस समय तो इस आश्वासन के बाद समाप्त कर दिया लेकिन कुछ समय बाद उन्होंने स्वयं मूर्तिकार को फोन करके पूछा आप विदेश से कब लौटे?
मूर्तिकार अचम्भे में था बोला- मैं तो यहीं था विदेश आज तक कभी गया ही नहीं। सुनते ही नागर जी बमक पड़े। लेकिन उसी के कुछ घण्टे बाद ही राज्य सरकार ने एक राजाज्ञा जारी करके प्रदेश की सभी नगर महॉपालिकाओं के महापौरों को एक झटके में बर्खास्त कर दिया। तब से चौदह सालों तक निराला जी की मूर्ति के स्थान पर मीर अनीस की प्रतिमा खड़ी रही। कालांतर में नई सरकार के गठित होने पर निराला जी की नई प्रतिमा तो प्रतिस्थापित कर दी गयी पर मीर अनीस की प्रतिमा अभी भी धूल खा रही है।
प्रतिमाये चाहे किसी की हों, किसी नेता की या धार्मिक महात्मा की अथवा किसी कलाकार, कवि, फिल्मी अभिनेता की सभी का हश्र यही होना है। राजनेताओं, फिल्मी अभिनेताओं की मोमिया प्रतिमा भी इसी हालत में पहुँचेंगी यह तय है।
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