मीडिया स्वामित्व में बदलाव की आवश्यकता

लोकतंत्र के सजग प्रहरी और आम जनता के हितों के रक्षक के रूप में मीडिया के लिए यह आवश्यक है कि वह किसी भी तरह के सरकारी या व्यापारिक नियंत्रण से मुक्त हो। वैसे तो भारतीय संविधान में मीडिया की स्वतंत्रता के लिए कोई विशेष प्रावधान नहीं है लेकिन तब भी सूचना के मौलिक अधिकार के अंतर्गत मीडिया को अपनी बात कहने और अपने मत को व्यक्त करने का पूरा अधिकार है। जनहित में कार्य करते समय मीडिया को अक्सर व्यवस्था का आलोचक और विरोधी बनना पड़ता है जिसके बिना न तो लोकतंत्र की रक्षा हो सकती है और न ही आम जनता के हितों को आगे बढ़ाया जा सकता है। व्यवस्था विरोध मीडिया के लिए एक शर्त है। हम सभी जानते हैं कि मीडिया पर कई तरह के दबाव पड़ते हैं यह दबाव सरकार की तरफ से होते हैं और साथ ही साथ कॉरपोरेट जगत तथा निहित स्वार्थों द्वारा भी डाले जाते हैं। यह दबाव मीडिया की को अपनी ओर मोड़कर जनमानस को प्रभावित करने के लिए डाला जाता है।


प्रश्न यह है कि मीडिया इन दवाओं का शिकार क्यों होता है? इसका कारण स्पष्ट है किसी भी आर्थिक गतिविधि के लिए किसी भी अन्य उद्योग की तरह ही संचार माध्यमों को पूंजी निवेश और धन की आवश्यकता होती है बिना इसके मीडिया उत्पाद की कल्पना नहीं की जा सकती। लेकिन मीडिया उद्योग और अन्य उद्योगों में एक मूलभूत अंतर है। मीडिया उद्योग का मुख्य लक्ष्य पैसा कमाना नहीं है और न ही पैसे से ऐसी पूजी का निर्माण करना है जिससे व्यापार को आगे बढ़ाया जा सके। मीडिया उद्योग सिर्फ एक जनहित उद्योग है जिसमें सिर्फ उतना ही पैसा कमाए जाना चाहिए जितना की मीडिया संस्थान को चलाने हेतु जरुरी होता है।

यह सही है कि मीडिया का कोई भी संस्थान घाटे में नहीं चलना चाहिए। लेकिन इसके साथ यह भी सही है कि उसको पैसे कमाने का लालच नहीं होना चाहिए। इस दृष्टिकोण से देखें तो राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने हमारे सामने एक बड़ा आदर्श खड़ा किया था। वह अपने समाचारपत्र बिना विज्ञापन के चलाते थे लेकिन साथ ही साथ उनकी पत्रकारिता घाटे का सौदा भी नहीं थी। शायद उस युग में समाचारपत्र चलाने का खर्चा बहुत कम आता था। आज हम गाँधीवादी आदर्शों पर नहीं ठहर सकते हैं लेकिन तब भी हमें यह समझना चाहिए कि मीडिया उद्योग किसी भी तरह से धन कमाने वाला उद्योग नहीं है। यह दुख की बात है कि आज तमाम मीडिया संस्थान पैसा कमाने में लगे हुए हैं और उनमें जनसेवा की कोई भावना नहीं है।

इसका मुख्य कारण यह है कि पाश्चात्य जगत की तरह हमारे यहां मीडिया उद्योग पर मीडिया वालों का आधिपत्य नहीं है, बल्कि उनका है जो कि किसी और काम धंधे में लगे हुए हैं। इसलिए कहा जाता है कि पाश्चात्य देशों में मीडिया अपने आप में व्यवसाय है, जबकि यहां हमारे देश में व्यवसाय मीडिया उद्योग का स्वामी है और उस पर हावी है। इस परिदृश्य में सबसे ज्यादा नुकसान मीडिया की विश्वसनीयता को हो रहा है। समाचारपत्र और जन संचार संस्थानों के मालिक पत्रकारों को सत्ता का दलाल बनने के लिए मजबूर करते हैं, क्योंकि उनको मालूम है कि पत्रकारों के संपर्क बड़े नेताओं और अधिकारियों से होते हैं। पत्रकार अपनी नौकरी बचाने के लिए ऐसा कार्य करने पर मजबूर हो जाते हैं और इस तरह से पत्रकार व्यवस्था तथा मीडिया मालिकों के बीच में एक घिनौने संबंध की कड़ी बन जाते हैं। यह पत्रकारिता की गरिमा और उसके मूल्यों के ठीक विपरीत होता है। समझौते और दलाली पर टिका हुआ मीडिया न तो समाचार और सूचना के साथ न्याय कर सकता है और न ही जन उपयोगी हो सकता है। आज मीडिया के बारे में जो भला बुरा कहा जा रहा है उसका मुख्य कारण यह है कि मीडिया ने अपनी विश्वसनीयता खो दी है।

प्रश्न यह है कि इस समस्या का समाधान क्या है? शायद मीडिया व्यवसाय का व्यापारिक ढ़ांचा और अर्थतंत्र वह बात है जिस पर इस प्रश्न का समाधान टिका हुआ है। आवश्यकता यह है कि समाचारपत्र और मीडिया उद्योग चाहे दैनिक समाचारपत्र हो जिसे हम प्रिंट मीडिया कहते हैं या ब्रॉडकास्ट मीडिया हो या फिर डिजिटल मीडिया इनके स्वामित्व के बारे में एक नई सोच और एक नए दृष्टिकोण से विमर्श किया जाय। यह विमर्श कई स्तरों पर करना पड़ेगा जिसमें पत्रकारों, मीडिया शिक्षा संस्थानों, स्वयंसेवी संगठनों तथा समाज के सभी प्रबुद्ध लोगों की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी।

मीडिया संगठनों के स्वामित्व में बदलाव लाकर उनका नया अर्थतंत्र कैसा हो? इस प्रश्न का उत्तर कोई आसान नहीं है। लेकिन हमें इस प्रश्न के उत्तर को खोजने का प्रयास करना पड़ेगा। नई सूचना तकनीक ने आज समाचार और सूचना उद्योग की छोटी इकाइयों को स्थापित करने की लागत बहुत कम कर दी है और यदि पत्रकार और माध्यमकर्मी मिलकर प्रयास करें तो ऐसी छोटी-छोटी ईकाइयां बड़े आराम से खड़ी की जा सकती हैं जो आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हो सकती हैं।

यदि हमें स्वतंत्र, स्वस्थ और जन उपयोगी माध्यम की कामना करनी है तो अब समय आ गया है जब हम माध्यम जगत की समस्याओं पर गंभीर रुप से चिंतन करें और नई तकनीकी तथा नई आर्थिक संभावनाओं के साथ एक नया मीडिया प्रारुप बनाए जो एक ऐसी मीडिया संस्कृति का सृजन करें जिससे पत्रकारिता के उच्चतम मूल्यों की रक्षा की जा सके। #

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