वसन्तोत्सव से होली तक का सफरनामा
भारत का अति लोकप्रिय और सर्वव्यापक पर्व होली जन-जन में आनन्द और उत्साह प्रदान करने की दृष्टि से अद्वितीय माना जा सकता है। वसन्त जैसी आन्न्दोन्मय ऋतु और फसल पक जाने के अवसर पर यह आवेग स्वाभाविक ही है। सोमदेव के कथा सरित सागर में वसंतोत्सव का अत्यन्त प्राचीन व प्रमुख वर्णन कई स्थानों पर हुआ है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह एक प्रसिद्ध उत्सव थ। उज्जयनी के सम्राट अपनी पत्नियों सहित इसे मनाने महल के उद्यान में पहुंचे। एक अन्य उल्लेख में वसंतोत्सव द्वारा आनंदित होने के लिए सम्राट सातवाहन गंगा किनारे के उद्यान में अपनी पत्नियों सहित गए। इसी में एक विवरण के अनुसार इसके विपरीत राजकुमार नरवाहन अपने साथियों के साथ एक उद्यान में वसंतोत्सव का आनन्द उठाते हुए दिखाई देते हैं। एक अन्य उल्लेख में वसंतोत्सव के अवसर पर ही सम्राट विक्रमादित्य सिंहाल की राजकुमारी के साथ अपनी विवाह संपन्न करते हैं।
राजकुमार नरवाहन
नागरिकों के मध्य आनंदित होते हैं, जो बिना
किसी संकोच के इस अवसर पर नृत्य करते हैं। सम्राट यशोधन हाथी पर सवार होकर अपने
राज्य के नागरिकों द्वारा वसंतोत्सव मनाते हुए देखने के लिए निकलते हैं।
पाटलीपुत्र के नागरिक वसंतोत्सव की रात्रि में अत्याधिक उन्मत हो उठते हैं। इसी
अवसर पर ब्राह्मण की राजकुमारी से एक उद्यान में भेंट होती है। इस उत्सव को देखने
के लिए घर से बाहर कन्याएं आती थी। शिवपुर (नेपाल) की राजकुमारी शशिप्रभा अपनी
दासियों के साथ एक उद्यान में वसंतोत्सव की यात्रा देखने के लिए पहुंचती है।
कथासारसागर के इन संदर्भों से प्रकट होता है कि एक यह उत्सव वसंत के शुरू होने पर
महल के उद्यानों या सार्वजनिक उद्यानों में संपन्न होता था तथा लोग नृत्य आदि
द्वारा आनंदित होते थे।
पर कथासारसागर में इस
बात का उल्लेख नहीं मिलता कि यह उत्सव किस देवता के सम्मान में मनाया जाता था।
वसंत के किन दिनों में मनाया जाता था तथा अन्य कौन सी बातें इसमें शामिल होती थी।
कालिदास में हमें इसका वर्णन विस्तार से मिलता है जिसकी सहायता से हम इस उत्सव की
रूपरेखा समझ सकते हैं। वसंत के आरंभ होने पर वसंतोत्सव या ऋतु-उत्सव मनाया जाता
था। यह कामदेव के सम्मान में चैत्र मास की पूर्णिमा को आयोजित किया जाता था। इस
अवसर पर आम्र मंजरियां पूजा में भेंट की जाती थी तथा मिठाई बांटी जाती थी। इस दिवस
को वसंतोत्सव के रूप में वर्णित किया गया है। अलबरूनी ने बहद उत्सव के बारे में
लिखा है जो चैत्र की पूर्णिमा को मनाया जाता था।
उसने आगे लिखा है कि
यह स्त्रियों का उत्सव था जिसमें आभूषण धारण करके अपने पतियों से उपहार मांगती थी।
हर्ष के नाटकों ‘‘प्रियदर्शिका’’ और ‘‘रत्नावली’’ में भी इस
उत्सव का उल्लेख मिलता है। ‘‘ प्रियदर्शिका’’ नाटक तो वसंतोत्सव पर खेले जाने के लिए ही था। ‘‘रत्नावली’’
नाटक में इस अवसर पर हम स्त्री-पुरूषों को बनाने-सजाने, परिहास और सुरापान करते देखते हैं। यह दुश्य कथासरितसागर के दृश्य के समान
ही है।
इस उत्सव की और भी
अधिक जानकारी हमें हेमाद्रि के चतुवर्ग- चिंतामणी (व्रतखंड) से प्राप्त होती है।
इसके अनुसार चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी और त्रयोदशी को कामदेव की पूजा के
समय यह उत्सव मनाया जाता है, यह उत्सव चैत्र मास की
द्वादशी को विष्णु के सम्मान में एक व्रत रखकर आरंभ किया जाता था। दोपहर में वृक्ष
के पत्तों से कामदेव की पूजा की जाती थी। क्योकि इसी दिन मदन द्वादशी भी पड़ती है,
अतः भक्तजन एक घंटे में अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार चावल, फल गन्ना, सफेद कपड़ा और र्स्वण आभुषण रखते थे।
रात्रि में कामदेव की शीतल जल से पूजा की जाती थीं लक्ष्मीधर और चण्डेश्वर के
अनुसार भक्तों की स्त्रियां त्रयोदशी को सूर्योंदय से पूर्व इस जल से स्नान करती
थी। जीमूतवाहन के ‘‘कालविवेक’’ कृत्यरत्नाकर
और चर्तुवर्ग- चिंतामणि के अनुसार यह पूजा चर्तुदशी को भी जारी रहती थी और इसे मदन
अथवा काम-महोत्सव कहा जाता था। ‘‘ राजतरंगिणी’’ में चैत्र के इस उत्सव को फूलों से और राज्य में प्रकाश सज्जा करके मनाने
का उल्लेख मिलता है।
चौहानों के शासन में
राजस्थान का यह सर्वाधिक महहत्वपूर्ण उत्सव था और इसे मदन अथवा कामदेव के सम्मान
में मनाया जाता था। बहुत बड़ी संख्या में लोग एकत्र होकर कामदेव रति की पूजा करते
थे और उद्यानों में झूले डालकर, नृत्य-गान करते हुए
परिहास करते थे तथा पिचकारियों में एक दूसरे पर रंग डालते थे।
आधुनिक होली के साथ
प्राचीन वसंत उत्सव की समानता दिखाने का लोभ कई विद्वान रोक नहीं सके हैं। वस्तुतः
कई विद्वानों ने जिसमें प्रोफेसर ए.एल. बशम जैसे प्रख्यात अध्येता भी शामिल है, ऐसा ही किया है। पर दोनों उत्सवों की कुछ विभिन्नताओं पर ध्यान देना भी
आवश्यक है। पहली बात तो यह है कि प्राचीन वसंतोत्सव का संबंध कामदेव के साथ था
जबकि आधुनिक होली के समान रंग और गुलाल का प्रचलन इसमें अनिवार्य नहीं था। तीसरी
बात यह है कि होली फाल्गुन की पूर्णिमा को मनाई जाती है जबकि वसंतोत्सव चैत्र की
पूर्णिमा को मनाया जाता था। अंतिम बात यह कि वात्यस्यायन के ‘‘कामसूत्र’’ में इन दोनों की समानता का विरोध किया
गया है। कामसूत्र में ये दोनों उत्सव अलग-अलग वर्णित किए गए हैं। कथासरितसगर के
विवरण के अनुसार वसंतोत्सव कामदेव के सम्मान के चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी
को मनाया जाता था जबकि होली को ‘‘उदकक्षवोदिका’’ कहा जाता था तथा इस अवसर पर लोग एक दूसरे पर पिचकारी से रंग डालते थे।
पर यहां इतना जरूर माना जा सकता है कि आगे चलकर ये दोनों उत्सव मिलकर एक हो गए थे। इस तथ्य की पुष्टि चौहानों के शासनकाल में राजस्थान में मनाई जाने वाली होली से भी होती है जिसमें लोग कामदेव और रति की पूजा करते थे तथा एक दूसरे पर रंग भी फेंकते थे। चर्तुवर्ग- चिंन्तामणि के व्रतखंड और कृत्यरत्नाकर के आधार पर इस अवसर पर विष्णु की पूजा करने का उल्लेख हम पहले ही कर चुके हैं कि यह उत्सव चैत्र के शुक्ल पक्ष की द्वादशी को विष्णु के व्रत से आरंभ होता था।
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